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________________ 244 जैन आगम : वनस्पति कोश __ उत्पत्ति स्थान-इस देश के प्रायः सब प्रान्तों के नेसी)। वन, उपवन और वाटिकाओं में उत्पन्न होता है। लंका, उत्पत्ति स्थान-यह प्रायः सब प्रान्तों में पाया जाता वर्मा और भारतवर्ष के समस्त उष्ण पर जंगली प्रदेशों है। दक्षिण एवं उत्तर प्रदेश में यह जंगली होता है । बगीचों में पाया जाता है। में फूलों के लिए यह लगाया हुआ मिलता है। विवरण-इसके वृक्ष बहुत विशाल और मोटे हुआ विवरण-इसके पेड़ प्रायः १० फीट तक ऊंचे होते करते हैं। डालियों पर छोटे-छोटे नुकीले कांटे होते हैं। हैं। स्निग्ध एवं हरिताभ श्वेत, अनेक शाखा प्रशाखायें सतिवन के पत्तों के समान इसके पत्ते एक-एक डंडी के इनके मूल तथा कांड से ही निकलने के कारण ये सघन अंत में ५ से ७ फैले हुए होते हैं। फूल लाल | पुष्पदल गुल्म या झाड़ीदार हो जाते हैं। शाखा के दोनों ओर प्रायः मोटा, लुआवदार एवं २ से ३ इंच लम्बा होता है। फल तीन-तीन पत्तियां एक साथ आमने सामने निकलती हैं। ५ से ६ इंच लम्बे गोलाकार, काष्ठवत् एवं हरे होते हैं पत्ते ४ से ६ इंच लम्बे, लगभग १ इंच चौड़े, सिरे पर और उनके भीतर रेशम जैसी रूई तथा काले बीज होते नोंकदार, ऊपर से चिकने, नीचे खुरदरे, श्वेत रेखा युक्त हैं। इसके १ से १.५ साल के छोटे वृक्ष के मूल निकाल एवं चिमड़े होते हैं। इनकी मध्य शिरा कड़ी होती है। पत्र कर सुखा लेते हैं जिन्हें सेमल मूसली कहा जाता है। तथा छाल को कुरेदने से श्वेतदुग्ध निकलता है। फूल (भाव० नि० वटादि वर्ग० पृ०५३७) साधारण सुगंधयुक्त श्वेत रक्त एवं गुलाबी रंग के लगभग १.५ इंच व्यास के तथा व्यस्त छत्राकार होते हैं। फूलों रत्तकणवीर के झड़ जाने पर ५ से ६ इंच तक लम्बी, पतली, चिपटी, रत्तकणवीर (रक्तकरवीर) लालकनेर कड़ी एवं गोलाकार फलियां लगती हैं। फलियों के पकने पर उनके छोटे-छोटे चक्राकार भूरे रंग के बीज श्वेत रोओं रा० २७ जी०३/२८० प० १७/१२६ से युक्त पाये जाते हैं। मूल या जड़ें लंबी पतली प्रायः विमर्श-मलयानम भाषा में कनेर को कणावीरम श्वेत या रक्ताभश्वेत तथा स्वाद में खारी होती है। इसका कहते हैं संस्कृत भाषा में करवीर नाम प्रसिद्ध है। सर्वांग विषैला होता है। जानवर इसे नहीं खाते। रक्तकरवीर के पर्यायवाची नाम (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ०६०.६१) रक्तकरवीरकोऽन्यो रक्तप्रसवो गणेशकुसुमश्च । चण्डीकुसुमः क्रूरोभूतद्रावी रविप्रियो मुनिभिः ।।१४ ।। रक्तकरवीर, रक्त प्रसव, गणेशकुसुम, चण्डीकुसुम, रत्तबंधुजीव क्रूर, भूतद्रावी तथा रविप्रिय ये सब लालकनेर के सात लपुष्पवाला नाम हैं। (राज.नि. १०/१४ पृ० २६६,३००) दुपहरिया रा० २७ जीवा० ३/२८० प० १७/१२६ अन्य भाषाओं में नाम असितसितपीतलोहितपुष्पविशेषाच्चतुर्विधो बन्धूकः । हि०-लालकनेर, कनइल। म०-रक्तकरवीर, यह (बन्धूक) कृष्ण, श्वेत. पीत तथा लोहितवर्ण पुष्प तांबडी कण्हर | बं०-लालकरवीगाछ, रक्तकरवी । गौ०- विशेष से चार प्रकार का होता है। लालकरवीगाछ। गु०-राताफूलनी, रातीकणेर । (राज०नि० ११/११८ पृ०३२०) क०-कणगिलु । ता०-अलरी । ते०-कस्तूरिपट्टे, गन्नेस। इसके फूल सफेद, सिन्दूरी और लालरंग के होते मल०-कणावीरम्, संथा-राजबाहा । पं०-कनिर अ0- हैं। (वनौषधि चंद्रोदय भाग ३ पृ० १०४) दिफ्ली सम्मुलहिमार। फा०-खरजहा। अं०-Sweet scented oleander (स्वीट सेंटेड ओलिएण्डर) Rooseberry रत्तासोग Spurge (रूजबेरी स्पज)। ले०-Neriumodorum soland (नेरियमओडोरम्सोलॅड) Fam. Apocynaceae एपोसाइ. रत्तासोग (रक्ताशोक) पक्काफल युक्त अशोक । रा० २७ जीवा०३/२८० प० १७/१२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016039
Book TitleJain Agam Vanaspati kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size8 MB
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