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________________ लेश्या-कोश नारकियों का लेश्या परिणाम अनिष्टकर, अकंतकर, अप्रीतिकर, अमनोज्ञ तथा अनभावना होता है। मूल में पुद्गल-परिणाम का पाठ है । टीकाकार ने उपर्युक्त संग्रहणीय गाथा देकर नारकी के अन्यान्य परिणामों को भी इसी प्रकार जानने को कहा है। अर्थात् पुद्गल-परिणाम की तरह लेश्या आदि परिणाम भी अनिष्टकर यावत् अनभावने होते हैं। "EE'४ निक्षिप्त तेजोलेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं :-- कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गता, दूरं निपतइ, देसं गता, देसं निपतइ, जहिं जहिं च णं सा निपतइ, तहिं तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, जाव पभाति । -भग० श ७ । उ १०। प्र ११। पृ० ५३०. क्रोधित अणगार- साधु द्वारा निक्षिप्त तेजोलेश्या, दूर या निकट, जहाँ-जहाँ जाकर गिरती है, वहाँ-वहाँ तेजोलेश्या के अचित्त पुद्गल अवभासित यावत् प्रभासित होते हैं। ६६५ परिहारविशुद्ध चारित्री और लेश्या : लेश्याद्वारे-तेजःप्रभृतिकासूत्तरासु तिमृषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहारविशुद्धिकं कल्पं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वासु अपि कथंचिद् भवति, तत्रापीतरास्वविशुद्धलेश्यासु नात्यन्तसंक्लिष्टासु वर्तते, तथाभूतासु वर्तमानो(ऽपि) न प्रभूतकालमवतिष्ठते, किंतु स्तोकं, यतः स्ववीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्तते, अथ प्रथमत एव कस्मात् प्रवर्तते ? उच्यते, कर्मवशात्, उक्त च "लेसासु विसुद्धासु पडिवजइ तीसु न उण सेसासु । पुव्वपडिवन्नओ पुण होजा सव्वासु वि कहंचि ।। णऽच्चंतसंकिलिट्ठासु थोवं कालं स हंदि इयरासु। चित्ता कम्माण गई तहा वि विरियं (विवरीयं) फलं देइ ॥" -पण्ण० प १। सू ७६ । टीका तेजोलेश्या प्रभृति पीछे की तीन विशुद्ध लेश्या में परिहारविशुद्धिक कल्प का स्वीकरण होता है। पूर्वप्रतिपन्न परिहारविशुद्धि को किसीने पूर्व में प्राप्त किया हो तो उसका सब लेश्याओं में कथंचित् रहना हो सकता है ; पर वह अत्यन्त संक्लिष्ट और अविशुद्ध लेश्या में नहीं रहता है। यदि वैसी लेश्या में रहे भी तो अधिक लम्बे समय तक नहीं रहता है, थोड़े काल तक रहता है ; क्योंकि निजकी सामर्थ्य से वह शीघ्र ही उससे निवृत्त हो जाता है। प्रश्न-तो पहले उस अविशुद्ध लेश्या में प्रवर्तन करता ही क्यों है ? कर्म के वशीभूत होकर करता है । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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