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________________ लेश्या-कोश १५३ जो जस्स पढमसमए वट्टइ भावस्ससो उ अपएसो। अण्णम्मि वट्टमाणो कालाएसेण सपएसो ॥ सलेशी जीव ( एकवचन ) काल की अपेक्षा से नियमतः सप्रदेशी होता है। सलेशी नारकी काल की अपेक्षा से कदाचित् सप्रदेशी होता है, कदाचित् अप्रदेशी होता है। इसी प्रकार यावत् सलेशी वैमानिक देव तक समझना। सलेशी जीव ( एकवचन ) काल की अपेक्षा से सप्रदेशी होता है क्योंकि सलेशी जीव अनादि काल से सलेशी जीव है। सलेशी नारकी उत्पन्न होने के प्रथम समय की अपेक्षा से अप्रदेशी कहलाता है तथा तत्पश्चात्-काल की अपेक्षा से सप्रदेशी कहलाता है। सलेशी जीव ( बहुवचन ) काल की अपेक्षा से नियमतः सप्रदेशी होते हैं क्योंकि सर्व सलेशी जीव अनादि काल से सलेशी जीव हैं । दंडक के जीवों का बहुवचन से विवेचन करने से काल की अपेक्षा से सप्रदेशी-अप्रदेशी के निम्नलिखित छः भंग होते हैं : (१) सर्व सप्रदेशी, अथवा (२) सर्व अप्रदेशी, अथवा (३) एक सप्रदेशी, एक अप्रदेशी, अथवा (४) एक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी, अथवा (५) अनेक सप्रदेशी, एक अप्रदेशी, अथवा (६) अनेक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी। सलेशी नारकियों यावत् स्तनितकुमारों में तीन भंग होते हैं, यथा-प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठ। सलेशी पृथ्वीकायिकों यावत् वनस्पतिकायिकों में छठा विकल्प होता है। सलेशी द्वीन्द्रियों यावत् वैमानिक देवों में प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठ विकल्प होता है। ____ कृष्णलेशी, नीललेशी, कापोतलेशी जीव ( एकवचन ) कदाचित् सप्रदेशी होता है, कदाचित् अप्रदेशी होता है। कृष्णलेशी-नीललेशी-कापोतलेशी नारकी यावत् वानव्यंतर देव कदाचित् सप्रदेशी, कदाचित् अप्रदेशी होता है। कृष्णलेशी-नीललेशी-कापोतलेशी जीव (बहुवचन ) अनेक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी होते हैं। कृष्णलेशी-नीललेशी-कापोतलेशी नारकियों यावत् वानव्यंतर देवों (एकेन्द्रिय बाद ) में प्रथम, अथवा पाँचवाँ, अथवा छठा विकल्प होता है। कृष्णलेशी-नीललेशी कापोतलेशी एकेन्द्रिय (बहुवचन ) अनेक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी होते हैं। तेजोलेशी जीव ( एकवचन ) कदाचित् सप्रदेशी, कदाचित् अप्र देशी होता है। तेजो. लेशी असुरकुमार यावत् वैमानिक देव (अग्निकायिक, वायुकायिक, तीन विकलेन्द्रिय बाद) कदाचित् सप्रदेशी, कदाचित् अप्रदेशी होता है। तेजोलेशी जीवों ( बहुवचन ) में पहला, अथवा पाँचवाँ अथवा छठा विकल्प होता है। तेजोलेशी असुरकुमारों यावत् वैमानिक देवों, (पृथ्वीकायिकों, अपकायिकों, वनस्पतिकायिकों को छोड़कर ) में पहला अथवा पाँचवाँ २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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