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________________ ( 59 ) ६. वर्ष राज्य किया। तत्पश्चात् न'दवंशीय राजाओं ने १५५ वर्ष, मौर्य वंश ने १०८ वर्ष, पुष्यमित्र ने ३० वर्ष, बलमित्र और भानु मित्र ने ६० वर्ष, नहपान ( नहवान ; नरवाहन या हइसेन ) ने ४० वर्ष, गर्द भिल्ल ने १३ वर्ष और एक राजा ने ४ वर्ष राज्य किया । और तत्पश्चात् विक्रमकाल प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार वीरनिर्वाण से ६०+१५५ + १०८+ ३० + ६० +४+१३+४= ४७० वर्ष विक्रम संवत् के प्रारम्भ तक सिद्ध हुए। डा० याकोबी ने आचार्य हेमचन्द्र के जिस मत के आधार पर वीर निर्वाण और चन्द्रगुप्त मौर्य के बीच १५५ वर्ष का अन्तर माना है वह वस्तुतः ठीक नहीं है। डा. याकोबी ने हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व का संपादन किया है और उन्होंने अपना यह मत भी प्रकट किया है कि उक्त कृति २१ रचना में शीघ्रता के कारण अनेक भूलें रह गयी है। इन भूलों में एक यह भी है कि वीर-निर्वाण और चंद्रगुप्त का काल अंकित करते समय वे पालक राजा की ६० वर्ष का काल भूल गये जिसे जोड़ने से वह अंतर १५५ वर्ष का हो जाता है । इस भूल का प्रमाण स्वयं आचार्य हेमचन्द्र द्वारा उल्लिखित राजा कुमारपाल के काल में पाया जाता है। उनके द्वारा रचित त्रिषष्टि-शलाका पुरुष चरित ( पर्व १०, सर्ग १२, श्लोक ४५.४६ ) में कहा गया है कि वीर-निर्वाण से १६६६ वर्ष पश्चात् कुमारपाल राजा हुए। अन्य प्रमाणों से सिद्ध है कि कुमारपाल का राज्याभिषेक ११४२ ई० में हुआ था । अतः इसके अनुसार वीर-निर्वाण काल १६६६ - ११४२ =५२७ ई० पूर्व सिद्ध हुआ। डा० जायसवाल ने जो बुद्ध निर्वाण का काल सिंहलीय परम्परा के आधार से ई० पू० ५४४ मान लिया है। यह भी अन्य प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता। उससे अधिक प्राचीन सिंहलीय परम्परानुसार मौर्य सम्राट अशोक का राज्याभिषेक बुद्ध-निर्वाण से २१८ वर्ष पश्चात् हुआ था। अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि अशोक का अभिषेक ई० पू. २६६ वर्ष में अथवा उसके लगभग हुआ था। अतः बुद्ध-निर्वाण काल २१८+ २६६ : ४८७ ई० पू० सिद्ध हुआ। इसकी पुष्टि एक चीनी परम्परा से भी होती है। चीन के कैम्टन नामक नगर में बुद्ध निर्वाण के वर्ष का स्मरण बिन्दुओं द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है। प्रतिवर्ष एक बिन्दु जोड़ दिया जाता था। इन बिन्दुओं की संख्या निरन्तर ई. सन् ४८६ तक चलती रही और तब तक के बिन्दुओं की संख्या ६७५ पायी जाती है। इसके अनुसार बुद्ध-निर्वाण का काल ६७५ - ४८६ = ४८६ ई० पू० सिद्ध हुआ। इस प्रकार सिंहल और चीनी परम्परा में पूरा सामंजस्य रूप पाया जाता है। अतः बुद्ध-निर्वाण का यही काल स्वीकार करने योग्य है। तीर्थकर भगवान के जन्म आदि प्रसंगों पर आकाश में जो घनवृष्टि होती है उसे 'वसुधारा' कहते हैं। भगवान महावीर ने विद्युत को यों सचित्त भी बताया है, मगर मूलतः विद्युत शक्ति जो है वह अचित्त है । वह हमारे शरीर में, सूर्य की किरणों में सर्वत्र विद्यमान है । ज्वलन-क्रिया जहाँ होती है वहाँ वह तेजस्काय बन जाती है। सूर्य के किरणे काँच के माध्यम से कपड़े पर डाली तब विद्युत और कपड़ा जलने लगा कि वह तेजस्काय बन गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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