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________________ ( १३२ ) पंचमुष्टिकचोत्पाट कृत्वा संवेगतस्तु तौ। नाथं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा चैवमूचतुः ॥२२॥ स्वामिजन्मजरामृत्युभीती त्वां शरणं श्रितो। स्वयं दीक्षाप्रदानेन प्रसीदाऽनुगृहाण नौ ॥२३॥ ददौ तयोः स्वयं दीक्षा समाचारं शशंस च । आवश्यकविधिं चाख्यन्निरवद्यमनस्कयोः ॥२४॥ वसन्ति सन्तो यत्राहरपि तत्रोपकारिणः । किं पुनर्भगवान् विश्वकृतज्ञग्रामणीः प्रभुः ॥२५॥ देवानन्दां चन्दनायै स्थविरेभ्यस्त्वर्षभम् । स्वामी समर्पयामास तौ चाऽपातां परं व्रतम् ॥२६।। अधीतकादशांगौ तौ नानाविधतपःपरौ । अवाप्य केवलज्ञानं मृत्वा शिवमुपेयतुः॥२७॥ –त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग ८ भगवान की वाणी सुनकर देवानंदा और ऋषभदत्त भगवान को नमस्कार बोलेहे स्वामी ! हम दोनों संसार से विरक्त हुए हैं। अतः हे जंगम कल्पवृक्ष ! हमें संसार से तारने वाली दीक्षा दो। तुम्हारे सिवाय तिरने और तारने में दूसरा कोई समर्थ नहीं है । भगवान ने तथास्तु-जैसा सुख हो---वैसा करो। आत्मा को धन्य मानते हुए वे दंपति ईशान दिशा में जाकर आभूषण आदि छोड़ दिये और संवेग से पाँच मुष्टि से केशका लुंचन कर प्रभु को वंदन कर बोले- हे स्वामी ! हम जन्म, जरा और मृत्यु से मय प्राप्तकर आप की शरण में आये हैं। अतः हमें अनुग्रह कर दीक्षा प्रदान करो। तत्पश्चात् भगवान ने निर्दोष मनवाले उन दंपतिओं को दीक्षा दी। और सामाचारी और आवश्यक की विधि बतलाई । सब सत्पुरुष उपकारी होते हैं तो फिर सर्व कृतज्ञ पुरुषों में शिरोमणी प्रभु की बात को क्या कहना।" बाद में भगवान् ने आर्यां चंदना को देवानंदा को सौंपा तथा स्थविर साधुओं को ऋषभदत्त को सौंपा। दोनों सुखपूर्वक महावत का पालन किया तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। विविध तप में तत्पर होकर केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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