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________________ वर्धमान जीवन कोश जाओ। यह सुनकर गौतम ने कहा-जैसी आपकी आज्ञा हो। ऐसा कहकर गौतम वीरप्रभु को नमस्कार कर तुरन्त वहाँ गये और प्रभु का वचन सत्य किया। अर्थात् देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोधित किया। .५३ भगवान महावीर का परिनिर्वाण सुनकर गौतम का विलाप और केवलज्ञान .१ गार्हस्थ्ये त्रिंशदब्दी द्विचत्वारिंशत्समा व्रत। इति द्वासप्ततिवर्षाण्यायुर्वीरप्रभोरभूत् । श्रीपार्श्वनाथनिर्वाणात् सार्धे वर्षशतद्वये । गते श्रीवीरनाथस्य निर्वाण समजायत ।। इतश्च देवशर्माणं बोधयित्वा निवृत्तवान्। शुश्राव गौतमः स्वामीनिर्वाणं सुरवात या ।। गौतमस्वाम्यथोत्ताम्यंश्चिन्तयामास चेतसि । एकस्याह्नः कृते भर्चा किमहं प्रेषितोऽस्मि हा !। जगन्नाथमियत्कालं सेवित्वाऽन्त न दृष्टवान् । अधन्यः सर्वथाऽस्म्येष धन्यास्ते तत्र ये स्थिताः। गौतम ! त्वं वजमयो वजादप्यधिकोऽसि वा। श्रुत्वाऽपि स्वामिनिर्वाणं शतधा यत्र दीर्यसे । यद्वाऽऽदितोपि भ्रान्तोऽहं यद्रागं राजवजिते। ममत्वं निर्ममे चास्मिन् कृतवानीदृशे प्रभौ। रागद्वेषप्रभृतयः किं चामी भवहेतवः। हेतुना तेन च त्यक्तास्तेनापि परमेष्ठिना। ईदृशे निर्ममे नाथे ममत्वेन ममाऽप्यलम् । ममत्वं सममत्वेऽपि मुनीनां न हि युज्यते । एवं शुक्लध्यानपरः क्षपकश्रेणिभाक् क्षणात् । घातिकर्मक्षयात्प्राप केवलं गौतमो मुनिः । तत्र द्वादशवत्सरी क्षिततले भव्यान् प्रबोध्योच्चकैः। स्वामीवामलकेवलेर्द्धिरमरैरभ्यर्चितो गौतमः । गत्वा राजगृहे पुरे क्षतभवोपग्राहीकर्मा । प्रभु त्वा मासमुपोषितः पद्मगादक्षीणशर्मास्पदम् । मुक्ते तत्र च पंचमो गणधरो लब्ध्वा सुधर्मप्रभुर्ज्ञानं पंचमन्वशाच्चिरतरं धर्मजनान् क्ष्मातले । स्मिन्नेव पुरे सुधर्मगणभृत्क्षीणाष्टकर्माक्रमा-त्तुयध्यानधरोऽपुनर्भवमगादद्वैतसौख्यपदम । –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १३/श्लो २७२ से २८२, ८४ गृहस्थ रूप में तीस वर्ष और व्रत में बयालीस वर्ष -ऐसे बहत्तर वर्ष का आयुष्य-श्री वीरप्रभु ने पूर्ण किया। श्री पार्श्वनाथ के निर्वाण के २५० वर्ष व्यतीत होने के बाद श्री वीरप्रभु का निर्वाण हआ। यहाँ श्री गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध प्राप्त कराकर वापस आये। फलस्वरूप मार्ग में देवों की वार्ता से प्रभु के परिनिर्वाण के समाचार सुने । वे ऊपर से उस चित्त में विचार करने लगे कि ___ एक दिवस में निर्वाण था। यह होने पर अरे प्रभो ! मुझे किसलिए दूर भेजा ? अरे जगत्पति ! मैं इतने दिन तक आपकी सेवा की परन्तु अन्तकाल में मुझे तुम्हारे दर्शन नहीं हुए इस कारण मैं सर्वथा अधन्य हूं। जो उस समय आपकी सेवा में उपस्थित थे उन्हें धन्य है। अरे गौतम ! तू वास्तव में वज्रमय है अथवा वज्र से भी अधिक कठिन है कि जिससे प्रभु का निर्वाण सुनकर भी तुम्हारे हृदय में सैकड़ों ककड़े नहीं हुए। अथवा हे प्रभो ! मैं अब अक भ्रान्त हो गया कि जिससे इस निरागो और निर्मम ऐसे प्रभु में रोग और ममता रखी। वे राग और द्वेष संसार के हेतु है। उसका त्याग करने के लिए इस परमेष्ठी ने हमारा त्याग किया होगा। इसलिए ऐसे ममता रहित प्रभु में ममता रखनेसे हमें क्या मिला। क्योंकि मुनियों को तो ममतालु में भी ममता रखना युक्त नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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