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________________ वर्धमान जीवन कोश ३०६ इस प्रकार शुद्ध ध्यान परायण होने से गौतम मुनि ने क्षपक श्रेणी को प्राप्त किया। इससे तत्काल घाती कर्म का क्षय होने से उनको केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । बाद में बारह वर्ष पृथ्वी पर विहार करके और भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देकर केवल ज्ञान रूप अचल समृद्धि से भगवान् महावीर की तरह देवों से पूजित गौतम मुनि अन्त में राजगृही में आये। वहाँ एक मास का अनशन किया भवोपग्राही कर्मों का क्षयकर अक्षय सुख वाले मोक्ष पद को प्राप्त किया। अस्तु गौतम स्वामी के माक्ष जाने के बाद पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी पंचम ज्ञान को प्राप्त किया। बहुत काल पृथ्वी पर विचरण कर लोगों को धर्मदेशना दो । अन्त में वे भी राजगृहो नगरी पधारे और स्वयं के निर्दोष सघ से जम्बूस्वामी को स्वाधीन करके दिया । बाद में सुधर्म गणधर भो उसी नगर में अशेष कर्मों का क्षयकर चतुर्थ ध्यान ध्याते हुए अद्वैत सुख वाले स्थान को प्राप्त किया । भगवान महावीर के परिवण के दिन गौतम गणधर को बंवल ज्ञान की उपलब्धि (क) ततोऽस्य केवलज्ञ न श्रीगौतम गणेशिनः । प्रादुरासीत्सुशुक्लध्यानेन धात्यरिघातनात् ॥२४८ ॥ तत्रापि ते महेन्द्राद्याश्चक्रः कैवल्यपूजनम् । इन्द्रभूतेर्गणैः सार्धं तद्योग्यभूरिभूतिभिः ॥ २४६ ॥ - वीरवर्धच० अधि १६ भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् उत्तम शुक्ल ध्यान से घानि कर्म शत्रुओं के घातने से उन श्री गौतम गणधर को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। वहाँ पर जाकर उन उत्तम देवेन्द्रों ने सर्वगण के साथ उनके योग्य भारी विभूति से इन्द्रभूति केवलो के केवल ज्ञान की पूजा की। . ५४ ग्यारह गणधरों के नाम (दिग् ) . .१ महंतो महाणाणवतो भूई | गणी वाउभूई पुणो अग्निभूई । सुप्रम्मो मुणिंदो कुलायास- चंदो । अणिदो णिवंदो चरित्ते अमंदो ॥ इसी मोरिमुंडी ओ चत्त-गावो । समुप्पण्ण वीरंघि राईव भावो ॥ सया सोहमाणो तवेणं खगामो । पवित्त सचित्तेण मित्तयणामो ॥ सयाकपणो णिच्चलको पहामो । विमुक्कंग-राओ रई-णाह - णासो ॥ इमे एवमाई गणमा मुणिल्ला । जिणिदम्स जाया अमल्ला महल्ला || - वीरजि० संधि २ / कड ७ भगवान महावीर के इन्द्रमूर्ति गौतम आदि एकादश गणधर थे । अस्तु महाज्ञानवान् एवं विभूतियुक्ति इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान् के श्रेष्ठ गणधर हुए। दूसरे वायुभूति, तोमरे अग्निभूति, चौथे सुधर्म मुनोन्द्र जो अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा थे। अनिंद्य, नर- वन्द्य तथा चारित्र में अमंद थे | पांचवें ऋषि मौर्य, छठे मुण्डि ( मौण्य ), सातवें सुत ( पुत्र ), जो इन्द्रियों की आसक्ति से रहित तथा वीर थे भगवान् के चरण कमलों के भक्त I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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