SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमान जीवन कोश ३०३ .ε तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दण्डे णिक्खित्ते, ते तओ आउ प्पिनहंति, विप्पजहित्ता ते तस्थ परेणं चेव जे तसथावरा पाणा, जेहिं समणोवास गस सुपरचक्वायं भवइ । ते पाणा वि जाव अयंपि भे उबरसे णो णेयाउए भवइ । - सूय० श्रु २ / अ ७ सू २६ 1 उस समय जो त्रस और स्थावर प्राणी श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से अन्य देशवर्ती हैं जिनको श्रावक ने व्रत ग्रहण से लेकर मरण पर्यन्त दण्ड देना छोड़ दिया है वे उस आयु को छोड़ देते हैं और छोड़कर वे धावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण से अन्य देशवर्ती जो बस और स्थावर प्राणी हैं जिनको आवक ने व्रत ग्रहण से लेकर मरण पर्यन्त दण्ड देना छोड़ दिया है उनमें उत्पन्न होते हैं - जिनमें श्रावक का प्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं । अतः श्रावक के व्रत को निर्विषय बताना न्यायसंगत नहीं है । अर्थात् मर्यादित भूमि से बाहर के त्रस - स्थावर प्राणी उसी भूमि के त्रस स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैंजिनकी हिंसा को उसने मृत्यु पर्यन्त छोड़ दी है तो उनमें उसके सुप्रत्याख्यान होते हैं । .१२ त्रस स्थावर प्राणियों का अविछिन्न } भगवं चणं उदाहुण एवं भूयं ण एवं भंडवं 'ण एवं भविस्सं जण्णं तसा पाणा बोजिहिंत, थावरा पाणा भविस्संति। थावरा पाणा बोद्धिजिहिंति तसा पाणा भविस्संति । अवोण्णेिहिं तसथावरे हिं पाणेहिं जण्णं तुम्भे वा अण्णोवा एवं वदह - 'णत्थि से केइ परियाए जंसि समणोवासरस एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते। अयंपि मे उवएसे णो णेयाउए भवइ । - - सूय० श्रु २/अ ७ सू ३० भगवान् गौतम - (आयुष्मान् ? ) इसलिए यह न कभी हुआ न कभी होता है और न कभी होगा कि सभी स : जंगम) प्राणी मिट जायं और स्थावर प्राणी हो जायं या स्थाबर प्राणी मिट जायं सब जंगम प्राणी हो जायं ! त्रस स्थायर प्राणियों के अविछिन्न होने पर भी जो तुम या और दूसरे कोई ऐसा कहते हो कि कोई ऐसी पर्याय नहीं है जिसमें श्रमणोपासक के सुप्रत्याख्यान हो सके. - यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। व्याख्या इस सूत्र के नो भागों की इस प्रकार व्याख्या करनी चाहिए। १-आवक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उतने देश के अन्दर जो उस स्थावर प्राणी निवास करते हैं वे जब मरकर उसी देश में फिर स-योनि में उत्पन्न होते हैं तब वे धावक के प्रत्याख्यान के विषय होते हैं अतः श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना ठीक नहीं है। यह इस सूत्र के पहले भाग का आशव है । इस सूत्र के दूसरे भाव का तात्पर्य यह है कि श्रावक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उतने देश के अन्दर रहनेवाले स प्राणी त्रस शरीर को छोड़कर उसी क्षेत्र में स्थावर योनि में आत्म ग्रहण करते हैं तब धावक उनको अनर्थ दण्ड देना वर्जित करता है। इस प्रकार उसका प्रत्याख्यान सविषयक होता है, निविषयक नहीं होता। तीसरे भाग का भाव यह है कि धावक ने जितने देश की मर्यादा ग्रहण की है उसके अन्दर निवास करनेवाले जो स प्राणी हैं। वे जब उस मर्यादा से बाह्य देश में त्रस स्थावर योनि में उत्पन्न होते हैं । तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy