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________________ ३०४ वर्धमान जीवन-कोश . इस सूत्र के चौथे भाग का भाव यह है कि-श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा के अन्दर रहनेवाले जो स्थावर-प्राणी हैं वे मरकर उस मर्यादा के अन्दर जब त्रस योनि में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इस सूत्र के पांचवें भाग का सार यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा के अन्दर रहनेवाले जो स्थावर । उसी देश में रहनेनाले स्थावर जीवों में उत्पन्न होते हैं तब उनको अनर्थ दण्ड देना श्रावक वजित करता है। ___इस सूत्र के छठे भाग का तात्पर्य यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहनेवाले जो स्थावर प्राणी हैं वे जब उस मर्यादा के अन्दर रहनेवाले त्रस और स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इस सूत्र के सप्तम भाग का अभिप्राम यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहनेवाले त्रस और स्थावर प्राणी जब उसी मर्यादा के अन्दर रहनेवाले त्रस प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इस सूत्र का आठवें भाग का अभिप्राय यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई देश मर्यादा से बाहर रहनेवाले त्रस-स्थावर प्राणी जब उस मर्यादा के अन्दर रहनेवाले स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब श्रावक उन्हें अनर्थ दण्ड देना वर्जित करता है। इस सूत्र के नववें भाग का भाव यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा से बाहर रहनेताले बस-स्थावर प्राणी जब मर्यादा से बाह्य देश में हो त्रस और स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है। इसी प्रकार प्रथम भाग से लेकर नो ही भाग की व्याख्या करनी चाहिए परन्तु जहां-जहां त्रस प्राणियों का ग्रहण है.वहां सर्वत्र व्रत ग्रहण के समय से लेकर मरण पर्यन्त उन प्राणियों को श्रावक दण्ड नहीं देता है-यह तात्पर्य जानना चाहिए। और जहां स्थावर का ग्रहण है वहां श्रावक के द्वारा अनर्थ दण्ड वजित करना समझना चाहिए। शेष अक्षरों की योजना अपनी बुद्धि के अनुसार कर लेनी चाहिए। इस प्रकार बहुत दृष्टांतों के द्वारा श्रावक के व्रत को सविषय होना सिद्ध करके अब भगवान् गौतम स्वामी उदक के प्रश्न को ही अत्यन्त असंगत बतलाते हैं-भगवान् गौतम उदक से कहते हैं कि हे उदक ! पहले व्यतीत हुए अनन्त काल में ऐसा कभी नहीं हुआ तथा अनागत अनन्त काल में ऐसा कभी नहीं होगा एवं वर्तमान काल में ऐसा नहीं हो सकता है कि सभी त्रस प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जायें और सभो स्थावर शरीर में जन्म ग्रहण कर लें तथा ऐसा भी नहीं हुआ है और न है कि सभी स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छि न हो जायें और सभी त्रस योनि में जन्म ग्रहण कर लें। यद्यपि कभी त्रस प्राणी स्थावर होते हैं और स्थावर प्राणी कभी त्रस होते हैं। इस प्रकार इनका परस्पर संक्रमण होता अवश्य है परन्तु सबके सब स-स्थावर हो जाये अथवा सभी स्थावर एक ही कल में त्रस हो जाये-ऐसा कभी नहीं होता है। ऐसा त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है एक प्रत्याख्यान करनेवाले श्रावक को छोड़कर बाकी के नारकी द्वीन्द्रियादि तिथंच तथा मनुष्य और देवताओं का सर्वथा अभाव हो जायें। उस दशा में श्रावक का प्रत्याख्यान निविषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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