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________________ वर्धमान जीवन - कोश २६१ एवमेव समणोगस वि तसेहिं पाणेहिं दंडे णिक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे णो णिक्खित्ते । तरसणं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चकखाणे णो भग्गे भवइ । सेवमायाणह नियंठा ! सेवमायाणियव्वं । - सूय० श्रु २ / अ७ / सू १७ गोतम भगवान् — निर्ग्रन्थ प्रश्न पूछे जाने योग्य होते हैं तो आयुष्मान् निर्ग्रन्थ ! संसार में कई तरह मनुष्य होते हैं । जो उन्हें आकर इस प्रकार कहते हैं - जो मुण्डित होकर गृहवास छोड़कर अनगार हो जाते हैं उनकी हिंसा के मृत्यु पर्यन्त के त्याग हैं और जो गृहस्थ हैं. उनकी हिंसा के मृत्यु पर्यन्त त्याग नहीं । पर कई कुछ वर्ष तक रहकर फिर गृहस्थ नहीं बन जाते हैं क्या ? बन जाते हैं । तो उस गृहस्थ बने हुए श्रमण का वध करने से उसके प्रत्याखान का भंग होता है ? [ तब वे 'निर्ग्रन्थ यही उत्तर देंगे कि । नहीं होता है । इसी प्रकार श्रमणोक के त्रस प्राणियों की हिंसा के प्रत्याख्यान है - स्थावर प्राणियों की हिंसा के नहीं । इसलिए [ स की अवस्था को छोड़कर आये हुए ] स्थावर जीवों की हिंसा से उसके है - यह समझिए और निर्ग्रन्थों ! यही समझना योग्य है । प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता (ख) भगवंच णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्वा - आउसंतो ! नियंठा ! इह खलु गाहावइणो वा गावइपुत्त वा तप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म धम्मस्वणवत्तियं उवसंकमेज्जा ? हंता उपसंकमेज्जा । ते सिंच णं तह पगाराणं धम्मे आइकि वयवे हंता आइक्खियव्वे | किं ते तहप्पगारं धम्मं सोच्चा णिसम्म एवं वएज्जा - इणमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुणं 'णेयाज्यं संसुद्धं' सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणमग्गं णिव्वाणari अवित असंद्धिद्धं सव्वदुक् बप्पहीणमग्गं । एत्थठिया जीवा सिज्झं ति बुज्झति मुच्वंति परिणिति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । इमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहाणिसीयामो तहा तुणयट्ठामो तहा भुंजामो तहा अब्भुठ्ठे मो तहा उदाए उट्ठत्ता पाणणं भुयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति वएज्जा १ हंता वएज्जा । किं ते तह पगारा कप्पति पव्वावेत्तए ! हंता कप्पंति । किं ते तहगारा कप्पंति मुंडावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तपगारा कप्पंति सिक्बावेत्तए ? हंता कप्पंति । किं ते तपगारा कप्पंति उवट्ठावेत्तए । हंता कप्पंति । तेसिंच णं तहनगाराणं सव्वपाणेहिं सव्वभूपहिं सव्यजीवेहिं सव्यसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ? हंता णिक्खित्ते । ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव वासाई चउपंचमाई छद्दसमाई वा अप्पयरोवा भुज्जरो वा देसं दूइज्जित्ता अगारं वएज्जा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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