SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमान जीवन-कोश २२७ तत्पश्चात् वह आनन्द श्रमणोपासक भगवान् गौतम को इस प्रकार बोला-'हे भगवन् ! क्या जिन शासन में सत्य, तात्त्विक, तथ्य तथा सद्भूत भावों के लिए भी आलोचना की जाती है ? और यावत् तपः कर्म स्वीकार किया जाता है। गौतम ने उत्तर दिया - ऐसा नहीं है, तब आनंद ने कहा-हे भगवन् ! यदि जिन प्रवचन में सत्य आदि भावों को आलोचना नहीं होती यावत् उनके लिए तपः कर्म स्वीकार नहीं किया जाता। तो हे भगवन् ! आप ही इस स्थान के लिए आलोचना कीजिये । यावत् तपः कर्म स्वीकार कीजिये । .. गौतम का शंकित होकर भगवान के पास आगमन : तए णं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे, संकिए कंखिए विइगिच्छा समावन्ने, आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक वमइ, पडिणिक्खभित्ता जेणेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ-उवागच्छइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं अलोएइ, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसइ, पडिदंसित्ता समणं 'भगवं वंदइ नमसइ, विंदत्ता णमंसित्ता एवं वयासी-“एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहिं अब्भगुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ, जाव तएणं अहं x x x संकिए ३ आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिक्खमाभि, पडिणिक्खमित्ता जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए, तं गं भंत ! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं जाव पडिवज्जेयव्वं उदाहु मए ?" गोयमा इ ! समण भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-गोयमा ! तुमं चेवणं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, आणंदं च समणोवासयं एवमट्ट खामेहि । -उवा० अ १/सू ७६ से ८१ तदनन्तर भगवान् गौतम आनंद श्रमणोपासक के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर शंकित, कांक्षित और विचिकित्सा युक्त होकर आनन्द के पास से निकले। निकलकर जहाँ दूतिपलास चैत्य था जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर श्रमण भगवान् महावीर के पास में गमनागमन कर प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण करके एषणीय-अनेषणीय की आलोचना की। आलोचना करके आहार-पानी दिखलाया। दिखाकर श्रमण भगवात् महावीर को वन्दना कर नमस्कार किया। वंदना, नमस्कार करके इस प्रकार बोले-“हे भगवन् ! इस प्रकार निश्चय ही मैं आपको अनुमति मिलने पर इत्यादि सारी घटनाएं कह सुनाई, यावत् उससे मैं शंकित होकर आनन्द श्रमणोपासक के पास से निकला ।" निकलकर यहाँ आप विराजमान हैं, वहाँ शीघ्रतापूर्वक आया हूँ, तो क्या भगवन् ! उस स्थान के लिए आनन्द श्रमणोपासक को आलोचना करनी चाहिए, यावत् ग्रहण करना चाहिए अथवा मुझे, गौतम ! यह संबोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम को इस प्रकार कहा-“हे गौतम ! तुम ही उस स्थान की बालोचना करो, यावत् तपः कर्म स्वीकार करो और आनन्द श्रमणोपासक से इस बात के लिए क्षमा प्रार्थना करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy