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________________ २२६ ०५ आनन्द द्वारा अपने अवधिज्ञान की सूचना : वधमान जीवन - कोश तणं से भगवं गोयमे जेणेव आनंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ । तए णं से आनंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- “अस्थि णं मंते ! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिनाणं समुपज्जइ” “हंता अस्थि” । जहणं भंते! गिहिणो जाव समुपज्जइ, एवं खलु भंते । ममवि गिहिणो गिहमज्झाव संतस्स ओहिना समुप्पण्णे- पुरत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाई जाव लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि ! - उवा० अ १ / सू ७५ तत्पश्चात् भगवान् गौतम जहाँ आनन्द श्रमणोपासक था - वहाँ आये । तदनन्तर आनन्द ने भगवान् गौतम को तीन बार मस्तक से पैरों में वंदना की, नमस्कार किया । वंदना - नमस्कार करके इस प्रकार कहा - 'भगवन् ! क्या गृहस्थ को घर में रहते हुए क्या अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ' भगवान् ने उत्तर दिया- 'हाँ, हो सकता है ।' पुनः आनन्द ने कहा - "हे भगवन् । यदि गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, तो हे भगवन्! इस प्रकार मुझ गृहस्थ को भी घर में रहते हुए को अवधिज्ञान की उत्पन्न हुआ है -- पूर्व की ओर लवण समुद्र में पाँच सौ योजन क्षेत्र को जानने और देखने लगा। इसी प्रकार दक्षिण और पश्चिम में भी पाँच सौ योजन तक जानने-देखने लगा । उत्तर की ओर क्षुल्लहेमवान् वर्षधर पर्वत को जानने-देखने लगा तथा ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक जानने-देखने लगा । अधोलोक में इस रत्नप्रथा पृथ्वी के चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुयाच्युत नरक तक जानने-देखने लगा । .६ गौतम का संदेह और आनन्द का उत्तर : तए णं से भगवं गोयमे आनंद समणोवासयं एवं वयासी- “अस्थि णं आनंदा ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ । नो चेव णं एमहालए। तं णं तुमं, आनंदा ! एयरस ठाणत्स आलोएहि जाव तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तसे आदे समणोवासए भगवं गोयमं एवं क्यासी - अस्थि भंते! जिणवयणे संतान तचाणं तहियाणं सम्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिवज्जिज्जइ ? नो इट्टे समट्ठे । - 6 'जइ णं भंते! जिणवयणे संताणं जाव भावाणं नो आलोइज्जइ जाव तवोकम्मां नो पडिवज्जिज्जइ तं णं भांते ! तुब्भे चेव एयरस ठाणस्स आलोएह जाव पडिवज्जेह ।” - उवा० अ १/सू ७७, ७८ तदनन्तर भगवान् गौतम आनन्द भ्रमणोपासक से इस प्रकार बोले- "हे आनन्द, यह ठीक है कि घर में रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, किन्तु इतना विशाल नहीं । इसलिए हे आनन्द, तुम मृषावाद रूप इस स्थान की आलोचना करो यावत् उसे शुद्ध करने के लिए तपस्या स्वीकार करो ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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