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________________ १८६ वर्धमान जीवन-कोश गण अर्थात् एक वाचना-आचार-क्रियास्थान समुदाय होता है, किन्तु कुल समुदाय नहीं। भगवान् महावीर के दो युगलों का एक समान वाचना-आचार-क्रियास्थान था । अतः गण ६ व गणधर ११ थे। (च) सूत्रितानि गणधरैरंगेभ्यः पूर्वमेव यत् । पूर्वाणोत्यभिधीयन्ते तेनैतानि चतुर्दश ॥१७२।। एवं रचयतां तेषां साप्तानां गणधारिणाम्। परस्परमजायन्त विभिन्नास्तत्र वाचनाः ॥१७३|| अकंपिताऽचलभ्रात्रोः श्रीमेतार्यप्रभासयोः। परस्परमजायन्त सदृक्षा एव वाचनाः ।।१७४।। श्रीवीरनाथस्य गणधरेष्वेकादशस्वपि। द्वयोर्द्व योर्वाचनयोः साम्यादासन् गणा नव ॥१७५।। -त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ गणधरों ने उत्पाद आदि चतुर्दश पूर्वो को अंगों के पूर्व रचना की फलस्वरुप उसे पूर्व कहा गया है। इस प्रकार रचना-प्रथम सात मणधरों की सूत्र-वाचना परस्पर अलग-अलग हुई और अकंपित तथा अचलभाता की; मेतार्य और प्रभास की परस्पर एक समान वाचना हुई। अस्तु श्री वीरप्रभु के ग्यारह गणधर होने पर उनकी दो एक समान वाचना होने के कारण गण (मुनि समुदाय) नौ हुए। .१७ अंग-पूर्वो की रचना और गणधर : (क) जाते संघे चतुधेवं ध्रौव्योत्पादव्ययात्मिकाम्। इन्द्रभूतिप्रभृतीनां त्रिपदी व्याहरत् प्रभुः ॥१६५॥ आचारांगं सूत्रकृतं स्थानांगं समवाययुक्। पंचमं भगवत्यंग ज्ञाताधर्मकथापि च ॥१६६।। उपासकांतकृदनुत्तरोपपातिकादशाः। प्रश्नव्याकरणं चैव विपाकश्रुतमप्यथ ॥१६७|| दृष्टिवादश्चेत्यंगानि तत्त्रिपद्या कृतानि तैः। पूर्वाणि दृष्टिवादान्तः सूत्रितानि चतुर्दश ३।१६८।। तत्रोत्पादाऽऽग्रायणीये वीर्यप्रवादमित्यपि। अस्तिनास्तिप्रवादं च ज्ञानप्रवादनाम च ॥१६६।। सत्यप्रवादमात्मप्रवादं कर्मप्रवादयुक् । प्रत्याख्यानं च विद्याप्रवादकल्याणके अपि ॥१७०|| प्राणावायाऽभिधानं च क्रियाविशालमित्यपि। लोकबिंदुसारमथ पूर्वाण्येवं चतुर्दश ॥१७१।। –त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ इस प्रकार चतुर्विधि संघ की स्थापना होने के बाद भगवान् ने इन्द्रभूति आदि को धौब्य, उत्पादक और व्ययात्मक त्रिपदी का कथन किया। उन्होंने त्रिपदो के द्वारा आचारांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्म कथा, उपासकदशांम, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद-इन बारह अंगों की रचना की । और दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदह पूर्वो की भी रचना की। उसके नाम इस प्रकार है - १-उत्पाद, २-आग्रायणीय, ३-वीरप्रवाद, ४-अस्ति नास्ति प्रवाद, ५–ज्ञानप्रवाद, ६- सत्यप्रवाद, ७-आत्मप्रवाद, -कर्म प्रवाद, ६-प्रत्याख्यान प्रवाद, १०-विद्या प्रवाद, ११- कल्याण, १२-प्राणावाय, १३-क्रियाविशाल और १४- लोकबिंदुसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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