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________________ ( 61 ) निर्माण नाड़ी तंत्र से होता है । कृष्ण आदि रंगों से प्रभावित भावधारा शुभ-अशुभ रूप में परिणत होती है । अस्तु भावधारा के निर्माण में रंगों का बहुत बड़ा हाथ रहता है । आहारक शरीर योगजन्यलब्धि है । यह चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के ही हो सकती है । आहारकशरीर पूरा बनकर जो प्रवृत्ति करता है वह आहारककाययोग कहलाता है । आहारकशरीर अपना काम सम्पन्न कर पुनः औदारिकशरीर में प्रवेश करता है । जबतक उसका काम पूरा नहीं होता, तब तक औदारिककाययोग के साथ आहारककायमिश्र होता है । वह आहारकमिश्रकाययोग कहलाता है । तेजस शरीर का स्वतन्त्र रूप से कोई प्रयोग नहीं होता, अतः तेजस काययोग नहीं होता । उसका समावेश कार्मणकाययोग में हो जाता है । एक भव से दूसरे भव में जाते समय जब जीव अनाहारक रहता है उस समय होने वाले योग का नाम कार्मणकाययोग है । केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होने वाला योग भी कार्मणकाययोग कहलाता है । इस प्रकार मन, वचन और काययोग के सब भेदों को मिलाने से योग के पन्द्रह भेद हो जाते हैं । (क) विशिष्ट शक्ति सम्पन्न योगी आहारकलब्धि का प्रयोग करता है 1 जबतक आहारक शरीर पूरा नहीं बन जाता, तबलक आहारककाययोग के साथ औदारिक का मिश्र होता है । (ख) केवली समुद्घात के समय दूसरे, छट्ट और सातवें समय में कामंणकाययोग के साथ औदारिकमिश्र होता है । (ग) वैकिलब्धि वाले मनुष्य और तिर्यच वैक्रिय रूप बनाते हैं, जबतक रूपनिर्माण का कार्य पूरा नहीं होता, तबतक वैकियकाययोग के साथ औदारिक का मिश्र होता है । देव, नारक, वैकिलब्धि सम्पन्न मनुष्य, तिर्यंच एवं वायुकाय के वैक्रिपशरीर होता है । वैक्रियशरीर की प्रवृत्ति काययोग है । वैक्रियमिश्रकाययोग दो प्रकार से हो सकता है (क) देवता और नारकी में उत्पन्न होने वाला जीव आहार ग्रहण कर लेता है, पर शरीर पर्याप्त को पूरा नहीं करता है, तबतक कार्मणकाययोग के साथ वैक्रिय का मिश्र होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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