SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 49 ) कहा जाता है कि भरत क्षेत्र के कुणाला नगरी में गुणभद्र श्रावक ने ८४००००० पूर्व से कुछ नौ वर्ष न्यून पूर्व तक लगातार सामायिक की-ऐसा सर्वज्ञ देव कह रहे थे। उसने बहुत बड़ी निर्जरा की। यदि वह सामायिक न करता तो नरक तिर्यंच में भी पैदा हो सकता था। सामायिक द्वारा उसने दलिक कर्मों का बहुतायत से क्षय किया था। संयती के गुप्ति निरंतर रहती है। समिति के निरंतर का नियम नहीं है। गुप्ति यम है, समिति नियम है। गुप्ति निरोध रूप संवर है, समिति प्रवृत्ति रूप निर्जरा है। ध्यान से मनोयोग की साधना होती है व जप से वचनयोग को साधा जाता है। कायोत्सर्ग में काययोग को साधा जाता है । देवद्धिगणि भगवान महावीर के सताइसवें पट्टधर थे। एक पूर्व के ज्ञाता थे। भगवान के परिनिर्वाण के ९८० वर्ष बाद हुए। हरिणगमेषी देव का जीव देवद्धिगणि था। जिस देव ने भगवान महावीर के जीव का संक्रमण किया वह हरिणगमेषी देव। इस पाट तक शुद्ध प्ररूपणा मानी गयी है। नववें गुणस्थान में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में से १, अथवा २, अथवा ३, अथवा ४, अथवा ५ प्रकृति का बंध होता है। आठवें में ९ प्रकृति, सातवें तथा छ8 में ९ प्रकृति का बंध होता है। पांचवें में १३, चौथे में १७, तीसरे में १७, दूसरे में २१ व पहले में २२ प्रकृति का बंध होता है ।' जन साहित्य में 'योग' शब्द का प्रयोग अध्यात्म योग, भावना योग, संवर योग, ध्यान योग, आदि अनेक रूपों में मिलता है। इन सभी योगों को जैन तत्त्व विद्या में समाविष्ट किया जा सकता है। इस दृष्टि से 'जैन योग' योग विद्या का बहुआयामी लक्ष्य लेकर चलता है। ___"योग" शब्द भी निष्पत्ति संस्कृत की 'युज्' धातु से होती है । इस धातु का प्रयोग भी कई अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ में इसके दो अर्थ अधिक उपयुक्त हैं—समाधि और जोड़ना। जिस प्रवृत्ति में मन, बुद्धि और आत्मा को समाधान मिले वह योग है। इसका दुसरा अर्थ 'जोड़ना' बहुत व्यापक होने पर भी एक विशेष योजना का प्रतीक है। जिसे अभिव्यक्त करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है-"मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो" धर्म की सारी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को मोक्ष के साथ जोड़ती है, इसलिए वे 'याग' हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक-सभी परम्पराओं में योग विद्या का प्रचलन है और उनके साहित्य में योग की विशद चर्चा है । पिछले कुछ दशकों में भारत तथा इतर राष्ट्रों में इस सम्बन्ध में जितनी शोध और प्रयोग हुए हैं, उससे इस क्षेत्र में नई-नई सम्भावनाएं बढ़ रही है और लोक-मानस में आकर्षण उत्पन्न हो रहा है। १. गोक० गा० २१७ । टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy