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________________ "( मानुषिप्रमत्तसंयत) स्त्रीनपुसकोदये आहारकद्धिमनःपर्ययपरिहारविशुद्धयो नहि ।" -गोजी• गा. ७१८ । टीका सामग्री विशेष के द्वारा रत्नत्रय और अनन्तचतुष्टयस्वरूप से परिणमन करने के जो योग्य हो वह भव्य है। उससे विपरीत अभव्य है। अभव्य राशि युक्तानन्तप्रमाण है। भव्य के तीन भेद हैं—आसन्न भव्य, दूर भव्य और अभव्य के समान भव्य । गोम्मटसार में सयोगी और अयोगी केवली को न भव्य माना है और न अभव्य माना है। शरीर और अंगोपांग नाम कर्म से उत्पन्न शरीर, वचन और मन के योग्य नोकर्म वर्गणाओं के ग्रहण को आहार कहते हैं। कहा हैविग्रहगती प्रतरलोकपूरण सयोगे अयोगे सिद्धे च अनाहारः । —गोजी• गा. ७०३ । टीका विग्रह गति में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात सहित सयोगी, अयोगी, और सिद्ध अनाहारक है। अनाहारक अवस्था में सिर्फ कार्मणकाययोग होता है या योगरहित होता है। पुद्गल द्रव्य में परमाणु और द्वयणुक आदि संख्यात, असंख्यात और अनंत परमाणुओं के स्कंधचलित होते हैं। अन्तिम महास्कंध में प्रदेशचल-अचल है। तेइस प्रकार की पुद्गलवर्गणाएं होती है १. अणुवर्गणा २. संख्याताणुवर्गणा ३. असंख्याताणुवर्गणा ४. अनंताणुवर्गणा ५. आहारवर्गणा ६. अग्राह्यवर्गणा ७. तैजसशरीरवर्गणा ८. अग्राह्यवर्गणा ९. भाषावर्गणा १०. अग्राह्यवर्गणा ११. मनोवर्गणा १२. अग्राह्यवर्गणा १३. कार्मणवर्गणा १४. ध्र ववर्गणा १५. सान्तर निरन्तरवर्गणा १६. शून्यवर्गणा १७. प्रत्येक शरीर वर्गणा १८. ध्र व शून्य वर्गणा १९ बादर निगोद वर्गणा २०. शून्यवर्गणा २१. सूक्ष्मनिगोद वर्गणा २२. नभोवर्गणा और २३. महास्कंधवर्गणा। योग और ध्यान निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकायकिरियस्स ।। -ध्याश० गा.८१ मोक्षगमन के प्रत्यासन्नकाल में केवली के मन और वचन योग का निरुद्ध हो जाता है किन्तु उच्छ वास-निःश्वास रूप काय की सूक्ष्म प्रवृत्ति (योग) वर्तमान रहती है। वह शुक्लध्यान का सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति नामक तीसरा प्रकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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