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________________ ५-धूमप्रभा पृथ्वी में तीन लाख नरकावास कहे गये हैं। जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा-उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। ६-तमःप्रभा पृथ्वी में पाँच कम एक लाख नरकावास कहे गये हैं। शेष सभी वर्णन पंकप्रभा के समान कहना चाहिए । ७- अधःसप्तम पृथ्वी में अनुत्तर और बहुत बड़े पाँच महा नरकावास कहे गये हैं यथा-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । मध्य का अप्रतिष्ठान नरकावास संख्यातयोजन विस्तार वाला है और शेष चार नरकावास असंख्यातयोजन के विस्तार वाले हैं। अस्तु अधःसप्तम पृथ्वी के पाँच अनुत्तर और बहुत बड़े यावत् महानरकावासों में से संख्यातयोजन के विस्तार वाले अप्रतिष्ठान नरकावास में एक समय में कितने नरयिक ( मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी) नारकी उत्पन्न होते हैं । हे गौतम ! जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ तीन ज्ञान वाले न तो उत्पन्न होते हैं और न उद्वर्तते हैं, परन्तु इन पाँच नरकावासों में रत्नप्रभा आदि के समान तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं। जिस प्रकार संख्यातयोजन विस्तारवाले नरकावासों के विषय में कहा, उसी प्रकार असंख्यातयोजन विस्तारवाले नरकावासों के विषय में भी कहना चाहिए। इसमें संख्यात के स्थान पर असंख्यात कहना चाहिए। नोट- असंज्ञी जीव प्रथम नरक में ही उत्पन्न होते हैं उससे आगे नहीं। इसलिए द्वितीयादि नरकों में उनका उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, ये तीनों बातें नहीं कहनी चाहिए। चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में कहा गया है कि यहाँ से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उदवर्तते हैं। इसका कारण यह है कि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी प्रायः तीर्थंकर ही होते हैं। चौथी नरक से निकले हुए जीव तीर्थंकर नहीं हो सकते और वहां से निकलने वाले अन्य जीव भी अवधिज्ञान, अवधिदर्शन लेकर नहीं निकलते । सातवीं नरक में मतिज्ञानी, श्रतिज्ञानी और अवधिज्ञानी उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि वहाँ मिथ्यात्वी और समकित से पतित जीव ही उत्पन्न होते हैं तथा वहाँ से इन तीनों ज्ञानों में उद्वर्तना भी नहीं होती। यद्यपि सातवीं पृथ्वी में मिथ्यात्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं तथापि वहाँ उत्पन्न होने के बाद जीव समकित प्राप्त कर सकता है। समकित प्राप्त कर लेने पर वहाँ मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी पाये जा सकते हैं। अतः सातवीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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