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________________ ( २८४ ) सो कस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरंकालादो होदि ? जहणेण उक्कस्सेण य एगसमओ भवदि । सुहुम- बादराणं णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया एयंताणुवड्डिजोगा Xxx । सो फस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहष्णुक्कस्सेण एमसमओ । -- षट्० खण्ड ० ४ । २ । ४ । सू १७३ । पु १० पृष्ठ० ४२० से ४२५ उसका जघन्य व उत्पन्न होने के प्रथम समय में उपपाद योगस्थान होता है । उत्कृष्टकाल एक समय मात्र है । उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना है कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध के योग्यकाल में अपने जीवित के विभाग में परिणामयोग होता है । उससे नीचे एकान्तानुवृद्धि योग ही होता है । लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्धकाल में ही परिणामयोग होता है ऐसा कितनेक आचार्य कहते हैं । किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से जो जीव परिणाम योग में स्थित है व उपपादयोग को नहीं प्राप्त हुआ है उसके एकान्तानुवृद्धियोग के साथ परिणाम के होने में विरोध आता है । एकान्तानुवृद्धियोग का काल जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है । पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे सब जगह परिणामयोग ही होता है । निर्वृत्यपर्याप्तकों के परिणामयोग नहीं होता 1 इस प्रकार योग अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इसमें सूक्ष्म निगोद को. आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तकों के जघन्य उपपादयोग होते हैं | अस्तु विग्रहगति में वर्तमान जीव के तद्भवस्थ होने के प्रथम समय में जघन्य उपपादयोग होता है । वह जघन्य व उत्कर्ष से एक समय रहता है, क्योंकि द्वितीयादि समयों में एकान्तानुवृद्धियोग प्रवृत्त होता है । शरीर ग्रहण कर लेने पर जघन्य स्वामित्व दिया गया है । योग है । होता है । चूंकि योग वृद्धि को प्राप्त होता है, अतः विग्रहगति में सूक्ष्क व बादर निर्वृत्तिपर्याप्तकों के जघन्य परिणाम वह जघन्य परिणामयोग शरीरपर्याप्त से पर्याप्त होने के प्रथम समय में ही Jain Education International वह परिणाम योग जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से चार समय रहता है । उससे भागे उनके ही उत्कृष्ट परिणाम योग होते हैं । वह उत्कृष्ट परिणामयोग परम्परा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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