SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 39 ) अनेक प्रकार के परिणाम बाले जीव जिसमें हो उसे 'समवसरण' कहते हैं, अर्थात् भिन्न-भिन्न मतों एवं दर्शनों को 'समवसरण' कहते हैं। समवसरण के चार भेद है । यथा क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। यहाँ क्रियावादी आस्तिक दर्शन है। कर्ता के बिना क्रिया संभव नहीं है। इसलिए क्रिया का कर्ता जो है, वह आत्मा है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले क्रियावादी है, क्रियावादी सम्यग्दृष्टि होते हैं बाकी तीन मतवाद --अक्रियावादी, विनयवादी व अज्ञानवादी मिथ्यादृष्टि होते हैं । केवली सब द्रव्यों और पर्यायों को साक्षात जानता है। और श्रुत केवली उन्हें श्रुत के आधार पर जानता है। कतिपय आचार्यों ने केवली के भाव मनोयोग नहीं माना है। परन्तु श्रुत केवली के भाव मनोयोग माना है। श्रुत केवली में कार्मण काययोग को बाद देकर चौदह योग होते हैं। भगवान महावीर ने सर्वाक्षरसन्निपाती वाणी के द्वारा धर्म का उपदेश दिया। भगवान ने कहा है---"सूइ समा वियट्ट भावो" "धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ" अर्थात् पवित्र वह है जो स्पष्ट है, खुला है। अल्प बोलिए, सदा मधुर बोलिए। कटु या अश्लील शब्द मत बोलिए। बाणी का बार-बार नियन्त्रण कीजिए। सयोगी तेजोलेशी जीव भी नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार सयोगी पद्मलेशीशुक्ललेशी भी नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं । "यश का हेतु संयम है" यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके 'संयम' को यश शब्द से अभिहित किया है। इसी तरह कारण को कार्य मान कर तपस्या को निर्जरा कहा है तथा सयोगी केवली में उपचार से "भावमन" कतिपय आचार्यों ने स्वीकृत किया है। सयोगी कृष्णलेशी, नीललेशी व कापोतलेशी जीव नोसंज्ञोपयुक्त नहीं है। तीसरे गुणस्थान की स्थिति उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है वह जघन्य स्थिति से ज्यादा है ऐसा मोम्मटसार में कहा है । षट् स्थान इस प्रकार है १ - संख्यातभागहीन । २-असंख्यातभागहीन । ३- अनंतभागहीन । ४-संख्यातगुण अधिक । ५-असंख्यातगुण अधिक तथा ६-अन्ततगुण अधिक । ___औदारिक - उदार शब्द के कई अर्थ होते हैं। एक अर्थ भीम-भयंकर भी होता है। कई आचार्यों ने इसका अर्थ प्रधान किया है। चौथे द्रव्य संग्रह के कर्ता ने भावास्रव के भेदों में प्रमाद को गिनाया है परन्तु गोम्मटसार के कर्ता ने प्रमाद को भावास्रव के भेदों में नहीं माना और वहाँ अविरत ने दूसरे ही प्रकार से बारह भेद किये हैं । पुदगल विपाकी अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन और काय पर्याप्ति रूप से परिणत तथा कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का अबलम्बन करनेवाले संसारी जीव के लोकमात्र प्रदेशों में रहने वाली शक्ति कर्मों को ग्रहण करने में कारण है वह भाव योग है। और उस शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों में जो कुछ हलन-चलन रूप परिस्पन्द होता है वह द्रव्य योग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy