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________________ ( 33 ) ने अपनी कृति में कहा है कि केवली के मनोयोग द्रव्य रूप से हैं, भाव रूप से नहीं है । प्रमाद की उत्पत्ति योग से मानी है । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कायवाङ्मनकर्मयोगः - तत्त्वार्थ सूत्र ६ । १ गया है । काययोग, वचनयोग और मनोयोग- इन तीनों साधनों के द्वारा पुद्गलों को खींचने की प्रक्रिया को दीपक के उदाहरण से समझाया दीपक जल रहा है, बाती निरन्तर तेल को खींच रही है, इसी प्रकार इन जुड़ी हुई हमारी प्राणधारा निरन्तर कर्म - पुद्गलों को आकृष्ट कर रही हैं । योगजनित चंचलता के न होने पर मिथ्यादृष्टि आदि चार आस्रव का कार्य नहीं होता है तीनों से । कार्मण वर्गणा को द्रव्यकर्म भी कहते हैं । द्रव्य कर्म के कारणआत्मा जिस अवस्था में परिणत होता है वह भाव कर्म है । भाव कर्म से द्रव्य कर्म का संग्रह होता है और द्रव्य कर्म के उदय से भाव कर्म में तीव्रता आती है । अष्टसहस्री के टीकाकार आचार्य विद्यानंदी ने द्रव्य कर्म को आवरण और भावकर्म को दोष माना है । मरुदेवी माता हाथी पर बैठी हुई जब क्षपकश्रेणी प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त किया । उस समय किसी भी गुणस्थान को दो बार प्राप्त नहीं किया । अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर फिर अयोग का निरोधकर परिनिर्वाण को प्राप्त हुई । केवली समुद्घात भी नहीं किया । भरत चक्रवर्ती को ६० हजार वर्ष विभिन्न देशों को साधने में लगे । जब दो समान बानवाले आपस में युद्ध करते हैं तो एक की हार कालान्तर में होती तो समझ लेना चाहिये - उसके पुण्य के कर्म क्षीण होने लग गये । विवेह का अर्थ है शरीर का ममत्व छोड़ना । मरुदेवी माता के परिनिर्वाण के समय कोई भी पाखण्ड न था । बाद में कितने वर्षों बाद पाखण्ड का प्रादुर्भाव हो गया था । तेइस तीर्थङ्करों के असाता वेदनीय कर्म एक तरफ, दूसरी तरफ चौबीसवें तीर्थङ्कर वर्धमान के असाता वेदनीय कर्म फिर भी चौबीसवें तीर्थङ्कर के असाता वेदनीय कर्म तुलना में अधिक होंगे । क्षपकश्रेणी के समय अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मोहनीय की भी सात प्रकृतियों के विना इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता मिल सकती है । गोम्मटसार की मान्यता के अनुसार नववें गुणस्थान में क्षपकश्रेणी में सर्वप्रथम अप्रत्याख्यानी - प्रत्याख्यानी क्रोध - मान-माया लोभ इन आठ प्रकृतियों का क्षयकर फिर नपुंसक वेद का, फिर स्त्री वेद का, फिर हास्यादिषट्क का, फिर फिर संज्वलन क्रोध, फिर संज्वलन मान, फिर संज्वलन माया का क्षय करता है ।" केवल ज्ञानी सयोगी के भी होता है व अयोगी के भी । ऋषभदेव तीर्थङ्कर के दो रानियां थी । सुमंगला के ९९ पुत्र व एक ब्राह्मी लड़की थी तथा सुनंदा के बाहुबल व सुन्दरी थी । सब युगल थे । सबसे बड़े भरत थे । मनुष्य का पसीना धूप में नहीं सुकता है १. गोक० गा० ३६० । टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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