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________________ ( 32 ) तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई, झाणं परमसुक्कं ॥ -ठाण० स्था ४ । उ १ । सू २४७ । टीका में उद्धृत निर्वाण के समय केवली के मन और वचन योगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्ध निरोध होता है। उस समय उसके शुक्लध्यान का तीसरा भेद "सुहमकिरिए अनियट्टी" होता है और सूक्ष्म कायिकी क्रिया-उच्छ वासादि के रूप में होती है। उस निर्वाणगामी जीव के शैलेशीत्व के-अयोगीत्व प्राप्त होने पर-सम्पूर्ण योग निरोध होने पर भी शुक्लध्यान का चौथा भेद 'समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती' होता है। यद्यपि शैलेशीव की स्थिति मात्र पांच ह्रस्व स्वराक्षर उच्चारण करने समय जितनी होती है। ध्यान का योग के परिणमन पर क्या प्रभाव पड़ता है यह भी विचारणीय विषय है। क्या ध्यान के द्वारा योग द्रव्यों का ग्रहण नियंत्रित या बंद किया जा सकता है, ध्यान का योग-परिणमन के साथ क्या सीधा संयोग है या योग के द्वारा या लेश्या के द्वारा। इत्यादि अनेक प्रश्न विज्ञजनों के विचारने योग्य हैं। योग और मरण निर्वाणगमनकाल को छोड़कर यदि चारों गति वाले जीव जब मरते हैं तो उनके योग के साथ लेश्या होती है। यदि अशुभ योग में जीव मरता है तो लेश्या भी अशुभ (कृष्ण-नोल-कायोत मे से कोई एक) होती है। यदि शुभ योग में जीव मरता है तो लेश्या भी शुभ (तेजो-पद्म-शुक्ल) होती है। स्थूल शरीर के छूटते ही अंतराल गति होती है उस समय तंजस-कार्मण दो शरीर होते हैं, सिर्फ एक काययोग होता है लेश्या छओं हो सकती है। द्रव्य लेश्या की वगंणा का सम्बन्ध तैजस शरीर की वर्गणा से है अतः द्रव्य लेश्या और तैजस शरीर की वर्गणा का सम्बन्ध अन्वय-व्यतिरेकी माना जा सकता है। द्रव्य काययोग की वर्गणा का सम्बन्ध भी द्रव्य लेश्या की तरह तैजस शरीर की वर्मणा से है। इस अर्थ में द्रव्य काययोग व द्रव्य लेश्या में समानता प्रतीत होती है किन्तु दोनों एक नहीं कहे जा सकते हैं। भाव लेश्या और भाव काययोग में भी अन्वय-व्यतिरेकी सम्बन्ध घटित नहीं होता है। यह नियम अवश्य घटित होता है। जो सयोगी हैं वह सलेशी है। जहाँ कषाय है वहाँ योग और लेश्या दोनों है परन्तु कषाय के बिना भी योग और लेश्या होती हैं। अर्थात् अकषायी-सकषायी दोनों प्रकार के जीव सयोगी-सलेशी हो सकते हैं । वीतराग अकषायी होते हैं पर उनके योगात्मा होती है। कतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि केवली के द्रव्य रूप से शुक्ल लेश्या है परन्तु भाव रूप से शुक्ल लेश्या नहीं है। सिद्धान्त ग्रन्थों में-श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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