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________________ ( १९५ ) जैसे - एक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव अपने काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर औदारिकमिश्रकाययोगी हो गया और द्वितीय समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । इस प्रकार एक समय प्राप्त हो गया । उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल एक समय कम छह आवली प्रमाण है । १८८ जैसे कोई एक देव अथवा नारकी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव, उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलीकाल के शेष रहने पर सासादनगुणस्थान को प्राप्त हुआ। वहाँ एक समय रह करके मरण कर तिर्यंच और मनुष्यों में ऋजुगति से उत्पन्न होकर औदारिकमिश्र काययोगी हो गया । वहाँ पर एक समय कम छह आवली तक रहकर के मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । दारिकमिश्र काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से अंतमुहूर्तकाल तक होते हैं । १८९ । जैसे - --- सात, आठ, जन, अथवा बहुत से असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव औदारिकमिश्र काययोगी हुए । और बहुत से सागरोपमकाल तक पहले दुःखों के साथ रहे हुए होने से सर्वलघुकाल से पर्याप्तियों को प्राप्त हुए । उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है । १९० । जैसे – देव, नारकी, अथवा मनुष्य सात, आठ, जन, अथवा बहुत से सम्यग्दृष्टि जीव, औदारिकमिश्रकाययोगी हुए। वे सब पर्याप्तपने को प्राप्त हुए। उसी समय में ही अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव औदारिक मिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकार एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से उत्कृष्ट संख्यात वार तक अन्य अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मिश्रकाययोगी हो गये । इन संख्यात शलाकाओं में से एक अपर्याप्तकाल से गुणा करने पर वह सब काल चूंकि एक मुहूर्त के अन्तर्गत ही होता है, अतः सूत्रकार ने अंतर्मुहूर्तकाल कहा है । एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त है । १९१ । जैसे - छट्ठे पृथ्वी का कोई एक सम्यग्दृष्टि नारकी बाईस सागर तक दुःखों से एक रस अर्थात् अत्यन्त पीड़ित होकर जीता रहा । पुनः छट्ठी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । विग्रहगति में, सम्यक्त्व के महात्म्य से उदय में आये हैं, पुण्यप्रकृति के पुद्गल परमाणु जिसके ऐसे उस जीव के औदारिकनामकर्म के उदय से सुगन्धित, सुरस, सुवर्ण और शुभ स्पर्श वाले पुद्गलपरमाणु बहुलता से आते हैं, क्योंकि उस समय उसके योग की बहुलता देखी जाती है । ऐसे जीव के औदारिकमिश्रकाययोग का जघन्यकाल होता है । एक जीव को अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है | १९२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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