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________________ ( १८६ ) पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियों का काल ओघ के समान है । क्योंकि, नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय, उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवां भाग, एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह आवलियां, इस रूप से पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियों के काल का ओघ संबंधी सासादन के काल से कोई भेद नहीं है । यहाँ पर भी योगपरावर्तन, गुणस्थानपरावर्तन मरण और व्याघात के द्वारा आगम के अविरोध से एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । उदाहरण - विवक्षित मनोयोग अथवा वचनयोग में स्थित सात, आठ जन, अथवा बहुत से मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत जीव उस विवक्षित योग के काल में एक समय अवशिष्ट रह जाने पर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और एक समय मात्र विवक्षित योग के साथ दृष्टिगोचर हुए । द्वितीय समय में सभी के सभी अविवक्षित योग को चले गये । इस प्रकार मरण के बिना शेष योगपरावर्तन, गुणस्थानपरावर्तन और व्याघात, इन तीनों की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा चिन्तन करके करना चाहिए । सम्यग्मध्यादृष्टि जीवों का उत्कृष्टकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं । क्योंकि, विवक्षिय योग से सहित सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का अविच्छिन रूप प्रवाह पल्योपम के असंख्यातवें भाग लम्बे काल तक पाया जाता है । एक जीव की अपेक्षा उक्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्यकाल एक समय है । यहाँ पर भी मरण के बिना गुणस्थानपरावर्तन, योगपरावर्तन और व्याघात इन तीनों का आश्रय करके एक समय की प्ररूपणा जान करके करना चाहिए । उदाहरण - अविवक्षित योग में विद्यमान कोई एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव विवक्षित योग को प्राप्त हुआ । वहाँ पर अपने योग के प्रायोग्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूतकाल तक रह करके अविवक्षित योग को चला गया। इस प्रकार से एक अंतर्मुहूर्तकाल प्राप्त हो गया । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी चारों उपशामक और क्षपक नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । उपशामक जीवों के व्याघात के बिना योगपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन और मरण के द्वारा नाना जीवों का आश्रय करके एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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