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________________ ( १८५ ) अथवा औदारिकमिश्रकाययोगी हो गया। अथवा, यदि देव या नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्मणकाययोगी, अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हो गया । इस प्रकार मरण से प्राप्त एक भंग को पूर्वोक्त नो भंगों में प्रक्षिप्त करने पर दस भंग हो जाते हैं (१०)। अब व्याघात से लब्ध होने वाले एक भंग की प्ररूपणा करते हैं --कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था। सो उन वचनयोग अथवा काययोग के क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यादृष्टि हुआ और द्वितीय समय में वह व्याघात को प्राप्त होता हुआ काययोगी हो गया। इस प्रकार से एक समय लब्ध हुआ। पूर्वोक्त दस भंगों में इस एक भंग के प्रक्षिप्त करने पर ग्यारह भंग होते हैं (११)। इस विषय में उपयुक्त गाथा इस प्रकार है गुणस्थानपरिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण ये चारों बातें योगों में अर्थात् तीन योग के होने पर होती है। किन्तु सयोगिकेवली के पीछले दो, अर्थात् मरण और व्याघात तथा गुणस्थानपरिवर्तन नहीं होते हैं। अस्तु इस विवक्षित गुणस्थान में विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थान को प्राप्त होते हैं या नहीं--ऐसा जान करके, गुणस्थान को प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थान को जाते हैं अथवा नहीं ऐसा चित्तवन करके, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतों की चार प्रकार से एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए। इसी प्रकार से अप्रमत्तसंयतों की भी प्ररूपणा होती है, किन्तु विशेष बात यह है कि उनके व्याघात के बिना तीन प्रकार से एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए । अस्तु अप्रमाद और व्याघात इन दोनों का सहानवस्थान लक्षण विरोध है अतः अप्रमत्तसंयत के इस कारण से व्याघात नहीं है । अब सयोगिकेवली के एक समय की प्ररूपणा की जाती है, यथा-एक क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव मनोयोग के साथ विद्यमान था। जब मनोयोग के काल में एक समय अवशिष्ट रहा, तब वह सयोगिकेवली हो गया और एक समय मनोयोग के साथ दृष्टिगोचर हुआ। वह सयोगिकेवली द्वितीय समय में वचनयोगी हो गया। इस प्रकार चारों मनोयोगों में और पांच वचनयोगों में पूर्वोक्त गुणस्थानों भी एक समय संबंधी प्ररूपणा करनी चाहिए। उक्त पांच मनोयोगी तथा पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, (अप्रमत्तसंयत) और सयोगिकेवली का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है। जैसे अविवक्षित योग में विद्यमान मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यगदृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत (अप्रमत्तसंयत) और सयोगिकेवलौ उस योग संबंधौकाल के क्षय हो जाने से विवक्षित योग को प्राप्त हुए। वहाँ पर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूंतकाल तक रह करके पुनः अविवक्षित योग को चले गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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