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________________ ( १७९ ) अस्तु यह द्रव्यार्थिकनय से अपेक्षा निर्देश है । लेकिन पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा निरूपण करने पर वैक्रियिककाययोगियों के क्षेत्र से यहाँ विशेषता है । यथा -- स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र से परिणत आहारककाययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और मानुष क्षेत्र से संख्यातवें भाग में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात से प्राप्त आहारककाययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । ०८ आहारकमिश्र काययोगी कितने क्षेत्र में आहारमिस्सकायजोगी वेडव्वियमिस्तभंगो । - षट्० खण्ड ० २ । ६ । सू ६६ । पु७ | पृष्ठ० ३४६ टीका- एसो वि दव्वट्ठियणिद्देसो, लोगस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण दोन्ह खेत्ताणं समाणत्तं पेक्खिय पवृत्तीदो । पज्जवट्टियणयं पडुच्च भेदो अत्थि । तं जहा - आहारमिस्सकायजोगी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे ति । आहारक मिश्रका योगियों का क्षेत्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों के समान है । अस्तु - यह भी द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा निर्देश है। क्योंकि, लोक के असंख्यातवें भागत्व से दोनों क्षेत्रों की समानता की अपेक्षा कर इसकी प्रवृत्ति हुई है । पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा भेद है । वह इस प्रकार है - - आहारकमिश्र काययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में व मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं । • ०९ कार्मण काययोगी कितने क्षेत्र में टीका - सुगमं । कम्मइयकायजोगी केवडिखेत्ते । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सु ६७ । पु ७ । पृष्ठ० ३४६ सव्वलोगे । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ६८ । ७ । पृष्ठ ० ३४६ टीका - एवं सामासियसुत्तं ण होदि, वृत्तत्थं मोत्तूणेदेण सुइदत्थाभावादो । कथं कम्मइयकायजोगिरासी सव्वलोए ? ण, तस्स अनंतस्स सव्वजोवरासिस्स असं खेज्जदिभागत्तणेण तदविरोहादो । Jain Education International कार्मणका योगी जीव सर्वलोक में रहते हैं । अस्तु यह देशामर्शक सूत्र नहीं है, क्योंकि उक्त अर्थ को छोड़कर इसके द्वारा सूचित अर्थ का अभाव है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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