SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४९ ) इस प्रकार सामान्य लोकादि तीनों लोकों का संख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यम्लोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकपदपरिणत जीवों ने सर्वलोक स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों का स्पर्शन-क्षेत्र ओघ के समान है। अस्तु वर्तमानकाल का आश्रय करके जैसी क्षेत्रानुयोगद्वार के ओघ में इन चारों गुणस्थानों की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार से यहाँ पर भी शिष्यों के संभालने के लिए स्पर्शप्ररूपणा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता नहीं है। अतीतकाल का आश्रय करके जैसी स्पर्शनानुयोगद्वार के ओघ में अतीत और अनागतकालों की अपेक्षा इन चार गुणस्थानवी जीवों से स्पशित क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार से यहाँ पर भी करना चाहिए। क्योंकि इसमें कोई विशेषता नहीं है । विशेष बात यह है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियों में उपपाद पद नहीं होता है, क्योंकि उपपाद के साथ पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगों का सहावस्थान-लक्षण विरोध है। अर्थात् उपपाद में उक्त योग संभव नहीं है। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलोहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट् खण्ड० १ । ४ । सू ७७ । पु ४ पृष्ठ० २५७ टोका -एदेसिमट्टण्हें गुणट्ठाणाणं जधा पोसणाणिओगद्दारस्स ओघम्हि तिणि काले अस्सिदूण परूवणा कदा, तधर एत्थ वि कादवा। जदि एवं, तो सुत्ते ओघमिदि किण्ण परविदं ? ण, तधा परूवणाए कामजोगाविणाभाविसजोगिचउन्विहसमुग्धादखेत्तपडिसेहफलत्तादो। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवलीगुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवौ उक्त जीवों ने लोक का असंख्यायवां भाग स्पर्श किया है। अस्तु आठों गुणस्थानों को स्पर्शनानुयोगद्वार के ओघ में तीनों कालों को आश्रय करके जैसी स्पर्शनप्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार से यहाँ भी करना चाहिए । क्योंकि उस प्रकार की प्ररूपणा काययोग के अविनाभावी सयोगिकेवली के चारों प्रकार के समुद्घात क्षेत्र के प्रतिषेध करने के लिए है। नोट-केवल काययोग के निमित्त से ही केवली के समुद्घात होता है जिसका स्पर्शन-क्षेत्र लोक का असंख्यातवां भाग, असंख्यातबहुभाग और सर्वलोक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy