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________________ ( १४८ ) भागो, पर- तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणो पोसिदो त्ति जं उत्तं होदि । मारणंतियपदेण सव्वलोगो पोसिदो । सासणसम्मादिट्टिप्पहूडि जाव संजदासंजदा ओघं । -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ७६ । षु ४ । पृष्ठ० २५६ टीका - वट्टमाणकालमस्सिदृण जधा खेत्ताणिओगद्दारस्स ओघम्हि एसि चदुहं गुणद्वाणाणं खेत्तपरूवणा कदा, तधा एत्थ वि सिस्ससंभालणट्ट परूवणा कादव्वा ; णत्थि कोइ विसेसो । अदीदकालमस्सिदूण जधा पोसणाणि ओगद्दारस्स ओघ म्हि तीदाणा गदकालेसु एदेहि चदुगुणट्ठाणजीवेहि छ त्तखेतपरूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादव्वा, विसेसाभावा । णवरि सासणसम्मादिट्ठि - असंजदसम्मादिट्ठीसु उववादो णत्थि, उववादेण पंचमण-वचिजोगाणं सहअणवद्वाण लक्खणविरोहा । योगमार्गणा के अनुवाद से पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है । अस्तु यह सूत्र वर्तमानकाल का आश्रयकरके स्थित है, अतः इसकी प्ररूपणा करने पर जैसी क्षेत्रानुयोगद्वार में पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवों की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार यहाँ पर भी मंदबुद्धि शिष्यों को संभालने के लिए स्पर्शनप्ररूपणा करनी चाहिए । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने अतीत और अनागतकाल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है । अस्तु स्वस्थान- स्वस्थान- पदपरिणत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और मनुष्य क्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहाँ पर स्वस्थान- स्वस्थान क्षेत्र के निकालने का विधान जान करके करना चाहिए । वह 'वा' शब्द से सूचित अर्थ है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं, जो कि घनाकार लोक को आठवें भाग से कम तेतालीस (४२) रूपों से विभक्त करने पर एक भाग, अथवा अधोलोक से साढ़े चौबीस (२४३ ) रूपों से विभक्त करने पर एक भाग, अथवा ऊर्ध्वलोक को आठवें भाग से कम साढे अठारह १८ ) रूपों से विभक्त करने पर एक भाग प्रमाण होता है । अर्थात् उक्त तीनों ही पद्धतियों से क्षेत्र निकालने पर वही देशोन आठ राजु प्रमाण आ जाता है । उदाहरण - ( १ ) घनलोक – ३४३ : 323 (२) अधोलोक - १९६ ÷ ू (३) ऊर्ध्वलोक - १४७ - १८७ Jain Education International ८ राजु पराजु = ८ राजु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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