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________________ ( ४१ ) ३ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीयकर्म के वेदन का प्रारम्भ और समाप्त दर्शनावरणीय वेदनीयकर्म मोहनीयकर्म आयुष्यकर्म नामकर्म गोत्रकर्म अंतरायकर्म जहा पावेण दंडओ, एएणं कमेणं अठ्ठसु वि कम्मप्पगडीसु अट्ठदंडगा भाणियव्वा जीवाइया माणियपज्जवसाणा। एसो णवदंडगसंगहिओ पढमो उद्देसो भाणियव्वो। -भग० श २९ । उ १ । सू ४ जिस प्रकार पापकर्म का दंडक कहा उसी प्रकार उसी क्रम से आठों कर्म प्रकृतियों के आठ दंडक जीवादि से लेकर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। नव दंडक सहित प्रथम उद्देशक कहना । ४ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और पाप कर्म का योग । सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववण्णगा रइया पावं ? एवं चेव, एवं जाव अणागारोवउत्ता। एवं असुरकुमाराणंवि । एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्वं । एवं गाणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं णिरवसेसं जाव अंतराइएणं । -भग० श २९ । उ २ । सू८ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी प्रथम व द्वितीय भंग से कर्म का वेदन करते हैं। इसी प्रकार मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी का कहना। सयोगी अनंतरोपपन्नकनारकी दो प्रकार के हैं-यथा १-कितनेकही नारकी समान आयु वाले और समान उत्पत्ति वाले होते हैं तथा २-कितनेक ही समान आयुवाले और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं। प्रथम भंग वाले एक साथ पाप कर्म का वेदन प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं। दूसरे भंग वाले पाप कर्म का भोगना एक साथ प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। इसी प्रकार असुरकुमार यावत् वैमानिक देव तक कहना । जिसके जितने योग हो उतने कहने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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