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________________ १.९ आहारक-आहारक-मिश्रकाययोग और मनः पर्यव ज्ञान मणपज्जवपरिहारो पढमुवसम्मत्त दोण्णि आहारा। एदेसु एक्कपगदे पत्थित्तियसेसयं णाणे। -गोजी० गा ७२९ टीका मनःपर्ययज्ञानं परिहारविशुद्धिसंयमः प्रथमोपशम सम्यक्त्वं आहारकद्विकं च इत्येतेषु मध्ये एकस्मिन् प्रकृते प्रस्तुते अधिकृते सति अवशेष उद्धरितं नास्ति-न संभवतीति जानीहि । मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व, आहारक, अहारकमिश्रकाययोग - इनमें से एक प्राप्त होने पर उसके साथ शेष सब नहीं होते हैं। सबसे न्यून ज्ञान सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्त के प्रथम समय में होता है। .१.१० योग और मनःपर्यवज्ञान इदियणोइदियजोगादि पेक्खित्त उजुमदोहोदि । हिरवेक्खिय विउलमदीओहि वा होदि णियमेण ॥ -गोजी० गा ४४६ टीका-ऋजुमतिमनःपर्यव स्पर्शनादीन्द्रियाणि नोइन्द्रियं मनोवचनकाययोगांश्च स्वपरसम्बन्धिनोऽपैक्ष्यैवोत्पद्यते। विपुलमति मनः पर्ययस्तु अवधिज्ञानमिव ताननपेक्ष्यवोत्पद्यते नियमेन । ऋजु मतिमनः पर्यय अपने और अन्य जीवों के स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ, मन और मन-वचन-काय योगों की अपेक्षा से ही उत्पन्न होता है। और विपुल मति मनः पर्यव अर्थात् अवधि ज्ञान की तरह उनकी अपेक्षा के बिना ही उत्पन्न होता है । .१.११ शुभ योग ( परिणाम ) भी विविध ज्ञानं की समुत्पत्तिमें कारण शुभ योग, ( परिणाम ) शुभ अध्यवसाय, लेश्या-विशुद्धि से जातिस्मरण ज्ञान की समुत्पत्तिः (क) तएणं तव मेहा! लेस्साहि विसुज्झमाणीहि अज्झवसाणेणं सोहणणं सुभेण परिणामेणं तयावरणिज्जाणं कम्माण खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुत्वे जाइसरणे समुप्पज्जित्था। (ख) तएणं तस्स मेहस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म सुभेहिं परिणामेहि पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहि विसुज्झ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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