SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 57 ) निर्जरा में--आत्मा पाँच-योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, वीर्य आत्मा। सिद्ध अकर्मा है, अशरीरी है, वहाँ योग-जन्य क्रिया है ही नहीं । टीकाकारों के अनुसार जन्मना नपुंसक सम्यक्त्वी नहीं होता। महर्षि गांगेय की भाँति कृत नपुंसक के मुक्त होने में कोई विसंगति नहीं है। केवली समुद्घात में आठ समय लगता है। उस समय मनोयोग-वचन योग नहीं होते-केवल काययोग होता है। पहले व आठवें समय में औदारिक काय योग, दूसरे, छठेसातवे समय में औदारिक मिश्र काययोग, तीसरे-चौथे-पाँचवें समय में कार्मण काय योग होता है। वैक्रिय शरीर बनाकर २० तीर्थकरों का निर्वाण कल्याणक इन्द्र महाराज करते है ऐसा आचार्यों का अभिमत है। शरीर के बिना योग नहीं होता है लेकिन योग के बिना भी शरीर हो सकता है। तीर्थकर तीर्थ की स्थापना कर-योग का निरोध कर मुक्त होते हैं । मिथ्यात्वी की तपस्या को बाल तपस्या कहते है-इस तपस्या में शुभयोग, शुभ अध्यवसाय व शुभ लेश्या होती हैं । इससे वह देवत्व को प्राप्त करता है । सर्वार्थ सिद्धि नामक पाँचवें अनुत्तर विमान के देवों में शुभ-अशुभ दोनों योग होते है। भाव परावृत्ति के अपेक्षा वहाँ भी प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों लेश्या होती है। टीकाकारों का मत है कि लोकांतिक देव सभी सम्यक्त्वी होते हैं। वे पूर्वजन्म की अपेक्षा तेजोलेश्या व शुभ योग से अपना शरीर त्यागते हैं। अकर्मभूमिज मनुष्यों में कर्मभूमिज मनुष्य ही शुभ क्रिया, शुभयोग, शुभलेश्या से कृत कियाओं से उत्पन्न होते हैं । अकर्मभूमिज मनुष्यों को जब कभी सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है उसी समय शुभ योग, प्रशस्त लेश्या व शुभ अध्यवसाय होते हैं । चूंकि अकर्मभूमिज मनुष्यों में उत्पन्न होने के समय मिथ्यात्व ही होता है। अमनष्क मनुष्यों में एक कायक्लेश रूप निर्जरा शुभयोग से होती है। असंशी तियच पंचेन्द्रिय में कायक्लेश रूप निर्जरा होती है। यहाँ काय का शुभयोग होना चाहिए । यद्यपि आगम साहित्य में उनके तीन अप्रशस्तलेश्याओं का उल्लेख है। अन्तीपज मनुष्य-युगलियों में भी तीन अप्रशस्त लेश्याओं का उल्लेख है परन्तु शुभयोग होना चाहिये। शुभ अध्यवसाय भी होता है। संज्ञीतियं च पंचेन्द्रिय में पांचवां गुणस्थान भी होता है। उसकी प्राप्ति में शुभयोगादि होते हैं। उस अवस्था में आयुष्य का बंधन भी शुभयोगादि में होता है। उनके अशुभयोगादि में आयुष्य का बंधन नहीं होता है । 8 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy