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________________ ( २७६ ) उत्तरोत्तर होनेवाले घात को उद्घात कहते हैं तथा समीचीन उद्घात को समुद्घात कहते हैं । इस घात को समीचीन कहने का अभिप्राय यह है कि बहुत काल में सम्पन्न होनेवाले घातों से एक समय में सम्पन्न होनेवाले इस घात को समीचीन कहने में कोई आपत्ति नहीं है । यद्यपि यहाँ पर एक ही पदार्थ में गम्य गमक भाव स्वीकार किया गया है, क्योंकि पर्यायी से पर्याय अभिन्न है; फिर भी यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कथंचित् पर्याय और पर्यायी की भेद विवक्षा करनेपर गम्यगमक भाव बन जाता है, अतः कोई विरोध नहीं है । ऐसे समुदुघातगत केवलियों में कार्मण काययोग होता है। सूत्र में आया हुआ 'वा' शब्द समुच्चय अर्थ का प्रतिपादक है । अब प्रश्न होता है— केवलियों का समुद्घात सहेतुक होता है या निर्हेतुक | दूसरा विकल्प अर्थात 'निर्हेतुक होना' स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर सभी केवलियों को समुद्घात के अनन्तर ही मोक्ष-गमन का प्रसंग उपस्थित हो जायगा । यह भी कहना उचित नहीं है कि सभी केवली समुद्घातपूर्वक ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं, क्योंकि ऐसे मानने पर लोकपूरण समुदघात करनेवाले केवलियों की वर्ष पृथक्त्व के अनन्तर नियत (२०) संख्या नहीं बन सकती है । प्रथम पक्ष अर्थात् सहेतुक समुद्घात भी मान्य नहीं है, क्योंकि कोई हेतु उपलब्ध नहीं होता है । यदि कहा जाय कि तीन अघाती कर्मों की असमानता ही समुद्घात का कारण है- यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्षीणकषाय गुणस्थान की चरमावस्था में सभी कर्म समान नहीं रहते हैं, अतः सभी केवलियों के समुद्घात का प्रसंग आ जायगा । यद्यपि यतिवृषभाचार्य के मतानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में सभी अघाती कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती है, अतः सभी केवली समुद्घात करके ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं, तथापि जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करनेवाले केवलियों की बीस संख्या नियत है, उनके अनुसार कितने केवली समुदघात करते हैं और कितने नहीं करते हैं। 1 वे केवली समुद्घात नहीं करते हैं जिनकी संसार व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति के समान है। शेष केवली समुद्घात करते हैं । अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर भी संसार व्यक्ति-स्थिति और कर्मों' की स्थिति में विषमता का कारण यह है कि संसार-व्यक्ति और कर्म स्थिति के घात के कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामों के समान रहनेपर संसार को उन तीन कम की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है । संसार - विच्छेद का कारण है- द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवली समुद्धात और अनिवृत्ति रूप परिणाम | परन्तु ये सब कारण सभी जीवों में संभव नहीं हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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