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________________ ( २७८ ) औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदय से जीव अपने शरीर की रचना करने में समर्थ अनेक प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है, अतः संसारी जीव के द्वारा शरीर का ग्रहण किया जाता है, इसलिए विग्रह देह को कहा जाता है। ऐसे विग्रह अर्थांव शरीर के लिए जो गति होती है उसको विग्रहगति कहते हैं । अथवा, वि का अर्थ विरुद्ध और ग्रह का अर्थ घात करने से विग्रह का अर्थ व्याघात भी होता है, जिसका अर्थ होता है-पुदगलों के ग्रहण करने का निरोध। इसलिए विग्रह अर्थात् पुद्गलों के ग्रहण करने के निरोध के साथ जो गति होती है उसको विग्रहगति कहते है। अथवा विग्रह, व्याघात और कौटिल्यये एकार्थवाची है, इसलिए विग्रह से अर्थात् कुटिलता ( मोड़ ) के साथ जो गति होती है उसको विग्रहगति कहते हैं। इस विग्रहगति को पूर्ण रूपेण प्राप्त जीव विग्रहगति समापन्न कहलाते है। ऐसे विग्रहगति को प्राप्त जीवों में कामणकाययोग होता है। जिससे सम्पूर्ण शरीर उत्पन्न होते हैं उस बीजभूत कार्मणशरीर को कार्मणकाय कहते हैं। वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से जो आत्म प्रदेशों का परिस्पन्दन होता है उसको योग कहते हैं। कार्मणकाय से जो योग उत्पन्न होता है उसको कार्मणकाययोग कहते है। यह विग्रहगति अर्थात् वक्रगति में वर्तमान जीवों के होता है। ___ आगम में कहा गया है-एक गति से दूसरी गति में गमन करनेवाले जीव में चार प्रकार की गति होती है-इषुगति, पाणिमुक्ता गति, लांगलिका गति और गोमूत्रिका गति । इनमें से पहली गति विग्रहरहित होती है, शेष गतियाँ विग्रहसहित होती है। सरल अर्थात धनुष से छूटे हुए वाण के समान मोड रहित गति को इघुगति कहते हैं। इस गति में एक समय लगता है। हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य की एक मोड़वाली गति होती है, इसी प्रकार संसारी जीव की एक मोड़वाली गति को पाणिमुक्ता गति कहते हैं। इस गति में दो समय लगता है। जेसे हल में दो मोड़ होते हैं, उसी प्रकार दो मोड़वाली गति को लांगलिका गति कहते है। इस गति में तीन समय लगता है। जैसे गाय के चलते अनेक मोड़ होते है उसी प्रकार तीन मोड़वाली गति को गोमूत्रिका गति कहते हैं । इस गति में चार समय लगता है। इषगति के अतिरिक्त शेष तीनों विग्रहगतियों में कामण काययोग होता है। जो प्रदेश जहाँ पर स्थित है वहाँ से लेकर ऊपर, नीचे और तिरछे क्रम से विद्यमान आकाश प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी के द्वारा ही जीवों का गमन होता है, न कि श्रेणी को उल्लंघन करके ; अतएव विग्रह गतिवाले जीव की त्रिविग्रहा अर्थाद तीन मोड़वाली गति विरोध को प्राप्त नहीं होती है, अर्थात ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ पहुँचने के लिए जीव को चार मोड़ की आवश्यकता हो । घात करना रूप धर्म को घात कहते है, जिसका प्रकृत में अर्थ होता है-कों की स्थिति और अनुभाग का विनाश । यद्यपि अभी तक कर्मों की स्थिति और अनुभाग का कथन नहीं किया गया है और न उसका अधिकार ही है, तथापि कर्मों की स्थिति और अनुभाग की विवक्षा यहाँ पर प्रकरण वश जानी जाती है, क्योंकि केवली समुद्घात में वे विवक्षित रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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