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________________ ( २८० ) क्योंकि दशपूर्वघर और नवपूर्वधर जीवों का भी क्षपकश्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है, अतः वहाँ संसार-व्यक्ति के समान कर्मस्थिति नहीं पाई जाती है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में नियम से नष्ट होनेवाले पल्योपम के असंख्यातवें भाग रूप अथवा संख्यात आवली रूप स्थिति काण्डको का विनाश करते हुए कितने ही जीव बिना समुद्घात के ही आयु के समान शेष कर्मों को कर लेते हैं तथा कितने जीव समुद्घात के द्वारा करते हैं । यह संसारघात पहले संभव नहीं है, क्योंकि पहले स्थिति काण्डक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते है । जज कि परिणामों में कोई अतिशयता नहीं है तो पीछे भी संसार घात नहीं होऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वीतराग रूप परिणामों के समान रहने पर भी अन्तमुहूर्त प्रमाण आयुकर्म की अपेक्षा से आत्मा के उत्पन्न हुए अन्य विशिष्ट परिणामों से संसारघात बन जाता है । उपर्युक्त कथन का यद्यपि अन्य आचार्यों द्वारा व्याख्यान नहीं किया गया है तथापि इसको सूत्र - विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वर्षपृथक्त्व के अन्तराल का प्रतिपादन करनेवाले सुत्र के वशवर्ती आचार्यों का ही पूर्वोक्त कथन से विरोध आता है । .९ विविध योग जीव में कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायओगो एइंदिप्पहुड जाव सजोगिकेवलि त्ति । — षट् ० खं १ । १ । सू ६१ | पु १ पृ० ३०५ टीका - काययोग एवेत्यवधारणाभावान्न वाङ्मनसोरभावः । एवं शेषाणामपि वाच्यमिति । एकेन्द्रियप्रभृत्यासयोगकेवलिनः औदारिक-मिश्रकाययोगिनः इति प्रतिपद्यमाने देशविरतादिक्षीणकषायान्तानामपि तदस्तित्वं प्राप्नुयादिति चेन्न, प्रभृतिशब्दोऽयं व्यवस्थायां प्रकारे च वर्तते । अत्र प्रभृतिशब्दः प्रकारे परिगृह्यते, यथा सिंहप्रभृतयो मृगा इति । ततो न तेषां ग्रहणम् । व्यवस्थावाचिनोऽपि ग्रहणे न दोषः 'ओरालिय- मिस्स - कायजोगो अपजत्ताणं' ति बाधक सूत्र सम्भवाद्वा । औधिक काययोग, विशेष रूप से औदारिक काययोग और औदारिकमिश्र काययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं । काययोग ही होता है, इस प्रकार का अवधारण - निश्चय नहीं होने के कारण उपर्युक्त गुणस्थानों में वचनयोग और मनोयोग का अभाव नहीं समझना चाहिए । इसी प्रकार अन्य योगों का भी कथन करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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