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________________ ( २६७ ) नीललेशी अभवसिद्धिक कृतयुग्मकृतयुग्म संशी पंचेन्द्रिय में योगकापोतलेशी तेजोलेशी पद्मलेशी शुक्ललेशी (कण्हलेस्स - अभषसिद्धिय कडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया) एवं उहि वि लेस्साहि छ सया कायव्वा जहा कण्हलेससयं । -भग० श ४० । श १७ से २१ जिस प्रकार कृष्णलेश्या का शतक कहा, उसी प्रकार नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या के विषय में जानना चाहिए। वे सब मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी होते हैं। १०६.५-६ सयोगी और गुणस्थान की अपेक्षा योग तेरहमउ स - जोइ - जिणु जायउ । उपरिलउ अजोह पर अक्खरु॥ - वीरजि० संधि १२ । कड ४ तेरहवां गुणस्थान सयोगि जिन अथवा सयोगि केवली कहलाता है । अन्तिम चौदहवां गुणस्थान उन अयोगि-केवली जीवों को होता है जिन्होंने मन, वचन, काय-इन तीन योगों का परित्याग कर दिया है। १०७ एकेन्द्रिय में योग .१ पृथ्वीकाय में कितने योग तेसिणं (पुढविकाइया) x x x तेणं भंते। जीपाकि मणजोगी, अयजोगी, कायजोगी ? गोयमा। णो मणजोगी, णो षयजोगी, कायजोगी। -भग० श १६ । उ ३ । सू५ पृथ्वीकायिक जीव मनोयोगी नहीं है, वचनयोगी भी नहीं है, एक काययोगी है। .२ अपकायिक जीवों में कितने योग .३ अग्निकायिक जीवों में कितने योग .४ वायुकायिक जीवों में कितने योग .५ वनस्पतिकायिक जीवों में कितने योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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