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________________ ( ११४ ) व्यापारस्याऽपि पृथग्योगत्वप्रसङ्गात् । तस्मात् विशिष्टव्यवहाराङ्गभूतपरप्रत्यायनादिफलत्वात् वाग्मनोयोगादेव पृथक् कृतौ, न प्राणाऽपानयोग इति । मनने तु तदेवं तनुयोगो वाग्निसर्गविषये व्याप्रियमाणो वाग्योगः, व्याप्रियमाणो मनोयोगः ; वाग्विषयो योगो वाग्योगः, मनोविषयो योगो मनोयोग इति कृत्वा । इत्येवं 'तनुयोगविशेषावेव वाग् मनोयोगो' इत्येतद् दर्शितम् । अथवा 'स्वतन्त्रावेतौ' इति दर्शयन्नाह - काय - व्यापार के अतिरिक्त प्राणापान का कुछ भी फल देखा नहीं जाता है, जिस प्रकार वाग और मन का स्फुट फल दिखाई देता है। इससे यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार स्वाध्यायविधान तथा पर प्रत्यय ( दूसरे को समझाना ) आदि वाणीका और धर्म - ध्यानादि रूप मन का कायक्रिया से भिन्न स्फुट फल उपलब्ध होता हैं वैसा स्फुट फल प्राणापान का नहीं मिलता है, अतः प्राणापान के व्यापार को काययोग के अभ्यन्तर ही माना गया, पृथक नहीं। यदि ऐसा कहें कि किसी मरणोन्मुख प्राणी के प्राणापान व्यापार को लक्ष्य कर 'यह जीवित है ' १ - इस प्रकार प्राणापान का भी स्फुट फल प्राप्त होता है। इस प्रकार यदि देखा जाय तो सर्वत्र कुछ न कुछ प्रयोजन की विद्यमानता रहती है और उसके आधार पर धावन वल्गनादि को भी पृथक् योग स्वीकार करना होगा । इसलिए विशिष्ट व्यवहार के अंगभूत पर प्रत्यय आदि फल प्राप्त होने के कारण वाग्योग और मनोयोग को पृथक् स्वीकार किया गया, किन्तु प्राणापान को नहीं स्वीकार किया गया । जिस योग का विषय वाक् हो वह वाग्योग है तथा जिस योग का विषय मन हो वह मनोयोग है, इस आधार पर काययोग जब वाक् के निसर्ग में व्यापृत रहता है तब वाग्योग है और जब मनन में व्याप्त रहता है तब मनोयोग है । इस प्रकार काययोग विशेष ही वाग्योग और मनोयोग है - यह दिखा दिया गया । अथवा ये दोनों योग स्वतन्त्र हैयह दिखाते हुए आगे कहा जाता है. ---- .०४ अहवा तणुजोगाहिअवइदव्वसमूह जीववावारो सो वइजोगो भण्णइ वाया निसिरिजए तेणं ॥ तह तणुधावाराहिअमणदव्वसमूह जीववावाशे I सो मणजोगो भण्णइ मण्णइ नेयं जओ तेणं ॥ - विशेभा० Jain Education International टीका - अथवा तनुयोगेन कायव्यापारेणाऽऽहतो ( प्र०SSहृतो ) गृहीतो योऽसौ वाग्द्रव्यसमूहस्तेन सहकारिकारणभूतेन तन्निसर्गार्थ' योऽसौ जीवस्य व्यापारः स बाग्योगो भण्यते, वाचा सहकारिकारणभूतया जीवस्य योगो बाग्योग इति कृत्वा । किं पुनस्तेन क्रियते ? इत्याह- सैव वाग् तेन १० गा ३६३-६४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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