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________________ ( ११५ ) जीवव्यापारेण निसृज्यते परप्रत्यायनार्थमुच्यते इति । तथा, तनुव्यापारेणाऽऽस्तो (प्र०......ऽऽहृतो) योऽसौ मनोद्रव्यसमूहस्तेन सहकारिकारणभूतेन वस्तुचिन्तनाय योऽसौ जीवस्य व्यापारः स मनोयोगो भण्यते, मनसा सहकारिकारणभूतेन जीवस्य योगो मनोयोग इति व्युत्पत्तेः। कुतः पुनरयं मनोयोगः? इत्याह-यतस्तेन यं जिनमूर्त्यादिकं मन्यते चिन्त्यते, अतस्तस्य मनोयोगत्वमिति । तदेवमत्र पक्षे वाग्द्रव्यनिसर्गादिकाले तनोापारः सन्नपि न विवक्षितः, किन्तु वाग्-मनोद्रव्यसचिवस्यजीवस्य, इति स्वतन्त्रावेव वाग्-मनोयोगौ, न तु तनुयोगविशेषभूताविति भावः । आनाऽपानद्रव्यसाचिव्यात् तन्मोचने जन्तोस्तद्योगोऽपि स्वतन्त्रः पृथक् प्राप्नोति, इतिचेत् । न, 'भण्णइ ववहारसिद्धत्थं' (गा ३६१) इत्यादिना प्रतिविहितत्वात् । ____ अथवा तनुयोग अर्थात काय -व्यापार के द्वारा जो वाग्द्रव्यसमूह ग्रहण किया जाता है वह उसके निसर्ग में सहकारि कारणभूत है, अतः उसके निसर्ग के लिए जीव जो व्यापार करता है वह वाग्योग कहलाता है, क्योंकि सहकारि कारणभूत वाग के द्वारा जो जीव का व्यापार होता है वह वाग्योग है-इस प्रकार वाग्योग की व्युत्पत्ति मानी जाती है । फिर इससे क्या किया जाता है, इसके उत्तर में कहा जाता है-वही वाग जीब-व्यापार के द्वारा निसर्ग की जाती है और दूसरे को समझने के लिए कही जाती है। और; कायव्यापार के द्वारा आहृत जो मनो द्रव्य समूह है उसके सहयोग से वस्तु चिन्तन के लिए जो जीव का व्यापार होता है वह मनोयोग है, क्योंकि सहकारि कारणभूत मन के द्वारा जो जीव का व्यापार है वह मनोयोग है-ऐसी मनोयोग की व्युत्पत्ति की जाती है। फिर यह मनोयोग क्या करता है ? इसके उत्तर में कहा गया- उसके ( मनोयोग) द्वारा शेय अर्थात् जानने योग्य जिनमूर्ति आदि का मनन-चिन्तन होता है। इस प्रकार यहाँ पर वाक् के निसर्गादि काल में काय-व्यापार रहते हुए भी विवक्षित नहीं किया गया, किन्तु वाग्-मनोद्रव्य सहयुक्त जीव-व्यापार को विवक्षित किया, गया, अतः वाग्योग और मनयोग स्वतन्त्र ही हैं, अपितु काययोग विशेष नहीं हैं। प्राणापानद्रव्य के सहयोग से उसके (प्राणापान ) मोचन में भी जीव का व्यापार स्वतन्त्र है, अतः उसको भी 'योग' माना जाय - ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके ऊपर गा ३६१ में विवेचन किया जा चुका है । जह गामाओ गामो गामंतरमेवमेग एगाओ । एगंतरं ति भण्णइ समयाओऽणंतरो समओ ॥ विशेभा० गा ३६५ टीका-यथैकस्मात प्रामादन्यो ग्रामोऽनन्तरितोऽपि लोकरूढ्या प्रामा .०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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