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________________ ( ११३ ) टीका-ननु त्वदुक्तयुक्त्यैव सर्वेषां तुल्ये तनुयोगत्वे मनो-वाग्योगवत् किमिति तकोऽसौ प्राणाऽपानव्यापारः कायिकयोगात् योगान्तरं न कृतः, किमिति चतुर्थों योगो न कृतः १ इत्यर्थः। अथ नैवं क्रियते, तहि तुल्येऽपि तनुयोगत्वे मनो वाग्योगौ काययोगात किमिति पृथक् कृतौ । तस्मात तनुयोगत्वस्य सर्वत्र तुल्यत्वादेक एव काययोगः क्रियताम् ; उपाधिभेदेन तु चत्वारो वा योगाः क्रियन्ताम् ; अन्यथा पक्षपातमेव स्यात् , न युक्तिः, इति भावः। अत्रोत्तरमाह-'भण्णइ' इत्यादि भण्यतेऽत्रोत्तरम् । किं तत् १ इत्याहव्यवहारस्य लोक-लोकोत्तररूढस्य सिद्ध यर्थं प्रसिद्धिनिमित्तं मनो वाग्योगावेव पृथक् कृतौ, न प्राणाऽपानयोग इति । व्यवहारोऽपि किमितीत्थं प्रवृत्तः ? इत्याह तुम्हारे कथनानुसार मनोयोग और वाग्योग की तरह जव सर्वत्र काययोग समान रूप से रहता है तब क्या कारण रहा जो इस प्राणापान रूप व्यापार को काययोग से पृथक योगान्तर नहीं स्वीकार किया गया ; क्यों न चतुर्थ योग स्वीकार किया गया? यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो तुल्य रूप में ही काययोग से सम्बन्ध रहने के कारण मनोयोग और वचनयोग को काययोग से पृथक् क्यों किया गया ? इसलिए जब काययोग सर्वत्र तुल्य ही रहता है तो एक ही काययोग माना जाय, अथवा उपाधि भेद से चार योग माने जायें ! अन्यथा पक्षपात ही कहा जायगा, इसमें कोई युक्ति नहीं है। इसके उत्तर में कहा जाता है-लोक और लोकोत्तर में रूढ़ व्यवहार की सिद्धि के लिए अर्थात प्रसिद्धि के रक्षार्थ मनयोग और वाग्योग को तो पृथक् माना गया, किन्तु प्राणापान रूप योग नहीं माना गया। व्यवहार ही ऐसा क्यों प्रवृत्त हुआ ? इसके सम्बन्ध में कहा जाता है कायकिरियाइरित्तं नाणा-पाणफलं जह वईए। दीसह मणसो य फुडं तणुजोगभंतरं तो सो॥ -विशेभा० गा ३६२ टीका-कायक्रिया कायव्यापारः, तदतिरिक्तं तदभ्यधिकं प्राणाऽपानफलं न किमपि दृश्यते, यथा वाचो मनसश्च स्फुटं तद् दृश्यते। इदमुक्तं भवतियथा वाचः स्वाध्यायविधान-परप्रत्यायनादिकं, मनसश्च धर्मध्यानादिकं विशिष्टं स्फुटं कायक्रियातिरिक्तं फलमुपलभ्यते, नैवं प्राणापानयोः, इति तनुयोगाभ्यन्तरव]वाऽसौ प्राणाऽपानव्यापारो व्यवह्रियते, न पृथक् । न च वक्तव्यम्-'जीवत्यसौ' इति प्रतीतिजननादिकं प्राणाऽपानफलमप्युपलभ्यत एवेति ; एवंभूतस्य प्रयोजनमात्रस्य सर्वत्र विद्यमानत्वात् धापन-वल्गनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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