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________________ ( ११२ ) काययोगः सर्वत्राऽनुगतोऽस्ति, तथापि येन मनो वाग्द्रव्याणामुपादानं करोति कायको योगः येन तु संरंभेण तान्येव मुञ्चति स वाचिकः, येन तु मनोद्रव्याणि चिन्तायां व्यापारयति स मानसिकः, इत्येवं तनुयोग एवैक उपाधिभेदात् त्रिधा विभक्त इति एतावन्मात्रभेदेन त्रयोऽप्यमी योगा व्यवह्रियन्ते । परमार्थतस्तु एक एव कायिको योग इति । तथा च प्रमाणयन्ति 5 इस गाथा से यह सूचित होता है - यद्यपि काययोग सब स्थान में अनुगमन करता है। तथापि जिससे मन वाग्द्रव्यों को ग्रहण करता है वह कायिक योग है, जिस संरंभ से मन उन्हीं ( वाग्द्रव्य ) को छोड़ता है वह वाचिक योग है तथा जिस संरंभ से मनोद्रव्यों को चिन्ता में व्यापृत करता है वह मानसिक योग है । इस प्रकार एक ही काययोग उपाधि भेद ( मन, वचन, काय ) से तीन भागों में विभक्त होता है । परमार्थ रूप में एक ही काययोग सर्वत्र रहता है। अग्रिम गाथा से इसको प्रमाणित करते हैं । तणुजोगो च्चिय मण-वइजोगा कारण दव्वगहणाओ । आणापाण व्व, न थे, तओ वि जोगंतरं होजा ॥ टीका - तनुयोग एव मनो- बाग्योगौ - तदन्तर्गतावेवैतावित्यर्थः, इयं प्रतिज्ञा; कायेनैव तद्रव्यग्रहणादिति हेतुः प्राणाऽपानचदिति दृष्टान्तः यथा कायेन द्रव्यग्रहणात् प्राणाऽपानव्यापारः कायिकयोगाद् न भिद्यते एवं मनोवाग्योगावपीति भावः । न चेदेवं न चेत् त्वया प्राणाऽपानव्यापारस्तनुयोगतयाऽभ्युपगम्यते, तर्हि तकोऽपि सोऽपि प्राणाऽपामव्यापारो योगान्तरं स्यात्, ततो योगचतुष्टयप्रसङ्गः, अनिष्टं चैतत् तस्मात् कायिकयोग एवायमिति । अत्र परः प्राह " क्योंकि काय दृष्टान्त देते काययोग से भिन्न मनोयोग और वचनयोग, काययोग में अन्तर्भूत है - ऐसा मानते हैं, से ही उनके ( मन और वचन ) द्रव्यों का ग्रहण होता है इसमें प्राण अपान का हैं, जिस प्रकार काय द्वारा द्रव्य ग्रहण होने के कारण प्राण अपान को नहीं मानते हैं उसी प्रकार मनोयोग और वाग्योग को भी काययोग के क I अन्यथा जब आप प्राण अपान रूप व्यापार को काययोग के रूप में तब उस प्राण अपान रूप व्यापार को भी योगान्तर स्वीकार करें। ऐसा अन्तर्गत स्वीकार स्वीकार करते हैं करने पर तो चार योग का प्रसंग उपस्थित हो जायगा जो अभीष्ट नहीं है, अतः यह काययोग ही है । यहाँ पर परपक्ष का कथन है - Jain Education International - विशेभा० गा ३६० तुल्ले तणुजोगत्ते कीस व जोगंतरं तओ न कओ ? | ग- वइजोगा व कया, भण्णइ ववहारसिद्धत्थं ॥ मण For Private & Personal Use Only - विशेभा० गा ३६१ www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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