SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६६ ) सहित वीर्य सूक्ष्मसंपराय - दसवें गुणस्थान पर्यन्त सभी संसारियों के होता है । चुका है इतर केवजी मलेशी होते हैं । इस प्रकार अनेक प्रकार से वीर्य का प्ररूपण कर जिस वीर्य का अधिकार है उसका प्ररूपण किया जाता है -- सलेश्य वीर्य के तीन रूप होते हैं— ग्रहणरूप, परिणामरूप तथा स्पन्दनरूप | औदारिकादि शरीर के प्रयोजन योग्य पुद्गलों का उपादान - ग्रहण है। उन्हीं दुगलों को औदारिकादि शरीर रूप से परिणमन-त्याग करना - परिणाम है, उसके स्वभाव रूप से अर्थात कारणरूप से परिणत हो जाना । यहाँ पर ग्रहण और परिणाम को कारण होते हुए जो ग्रहण और परिणाम का स्वरूप कहा गया है वह कार्य के साथ कारण की अभेद विवक्षा से । स्पन्दन रूप वीर्य वह है जो यथासंभव सूक्ष्म तथा बादर शरीर की परिस्पन्दन रूप क्रिया है । कहा जा यही जो सलेश्य वीर्य का स्वरूप कहा गया है उसको योग कहा जाता है। इसके सहकारी कारणभूत मन, वचन और काय हैं, अतः वे ( मन, वचन और काय ) भी कारण में कार्य के उपचार से शास्त्रों में योग शब्द के द्वारा व्यवहृत होते हैं । मन, वचन, काय रूप योग से सहकारी कारण के समान उत्पन्न होनेवाला सलेश्य वीर्य रूप योग है वह तीन प्रकार का है, यथा - मनोयोग, वाग्योग और काययोग | मन रूप कारण से होनेवाला योग मनोयोग है । वचन रूप कारण से होनेवाला योग बाग्योग है । काय रूप कारण से होनेवाला योग काययोग है । .०६ मलयगिरि बिरियमिति - बीर्यान्तरायस्य देशक्षयेण सर्वक्षयेण षा लब्धिवर्यलब्धिरसुमतामुपजायते । तत्र देशक्षयेण छद्मस्थानां सर्वक्षयेण (च) केवलिनां । तस्याश्च वीर्यलब्धेः सकाशादुपजायमानं बीर्यं सलेश्यस्यापि च भवति, अलेश्यस्यापि च । केवलमिह सलेश्यवीर्येणाधिकार इति तदेवोपदर्शयति'अभिसंधिजमियरं वा तत्तो पिरियं सलेसस्स' ततस्तस्याः क्षायिकक्षायोपशमिकरूपाया वीर्यलब्धेः सकाशात् सलेश्यस्य वीर्यमभिसन्धिजमितरद्वा भवति । तत्र यबुद्धिपूर्वकं धावनवल्गनादिक्रियासु नियुज्यते तदभिसन्धिजं, इतरदनभिसन्धिजं यद्भुक्तस्याहारस्य धातुमलत्वरूपपरिणामापादानकारणं एकेन्द्रियाणां वा तत्तत्क्रियानिबन्धनं । एतश्चाभिसन्धिजमनभिसन्धिजं वा वीर्यमवश्यं यथासंभवं सूक्ष्मबादरपरिस्पन्द रूपक्रियासहितं योगसंज्ञमप्येतदेव । एकार्थिक्रानि वास्यानि – “जोगो विरियं थामो, उच्छाहपरिकमो तहा चि (चे) ट्ठा । सती सामत्थं विय, जोगस्स हवंति पजाया ॥" - कम्म० गा ३ | टीका जीव के वीर्यान्तराय के देशक्षय अथवा सर्वक्षय के द्वारा जो लब्धि प्राप्त होती है। उसको वीर्यब्ध कहते हैं । छद्मस्थों के देशक्षय के द्वारा वीर्यलब्धि होती है तथा केवलियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy