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(६८ ) तत्र छानस्थिकमकषायि सलेश्य उपशान्तमोहक्षीणमोहानां, कैवनिकमकषायि सलेश्यं सयोगिकेवलिना 'होइकसाइपीत्यादि' प्रथमं छाद्मस्थिकं वीर्य कषाय्यपि कषायिकमपि, अपिशब्दादकषाय्यपि भवति । तत्र कषायिकं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकपर्यन्तानां सर्वेषां संसारिणां, अकषायिकं च प्रागेवोक्त। इतरत्कैचलिकमलेश्यमपि भवति । तचाऽयोगिकेवलिनां सिद्धानां च वेदितव्यं । तदेवमनेकधा वीर्य प्ररूप्य संप्रति येन वीर्येणाधिकारस्तद्विशेषतः प्ररूपयति'जलेसं तु इत्यादि' यत्सलेश्यं वीर्य, तद्ग्रहणपरिणामस्पन्दनरूपं, तत्र ग्रहणं
औदारिकादिशरीर-प्रायोग्याणां पुद्गलानामुपादानं, परिणामस्तेषामेव पुद्गलानामौदारिकादिरूपतया परिणामापादनं, तद्रूपं तत्स्वभावं तत्कारणमित्यर्थः । इह ग्रहणपरिणामकारणं सत् ग्रहणपरिणामरूपमित्युक्तं, कार्येण सह कारणस्याऽ. भेदविवक्षणात् । तथा स्पन्दनारूपं यथासंभवं सूक्ष्मबादरपरिस्पन्दरूपक्रियात्मकं । एतदेव व सलेश्यं वीर्यमुक्तस्वरूपं योगसंज्ञमुच्यते। एकाथिकाति चास्यैव वक्ष्यति, अस्य च सहकारिकारणभूता मनोवाक्कायाः, ततस्तेऽपि कारणे कार्योपचारात योगशब्देन शास्त्रेषु व्यवक्रियन्ते। तथा चाह-'जोगओ तिविह' योगतो मनोवाकायरूपतः सहाकारिकारण-चदुपजायमानं सलेश्य षीययोगसंज्ञत्रिविधं त्रिप्रकारं भवति, तद्यथा-मनोयोगो वाग्योगः काययोगः। तत्र मनसा कारणभूतेन योगो मनोयोगः, वाया योगो वाग्योगः, कायेन योगः काययोगः।
-पंच श्वे० भा ३ । गा ४ । टीका । पृ० ३१६-२१ __ धावन-बल्गनादि क्रियाओं में जो बुद्धिपूर्वक नियोजन होता है वह अभिसन्धिजात है । भुक्त आहार का धातु मल आदि रूप परिणमन तथा उसके अपादान-त्याग और एकेन्द्रिय आदि या मनोलब्धि रहित जीवों के द्वारा जो उन-उन क्रियाओं में निबन्धन होता है वह अनभिसब्धि जात है। ये दोनों वीर्य अकषायी सलेश्यी छद्मस्थ और केवली के भी होता है।
इस संसार में वीर्य-पराक्रम दो प्रकार का है, यथा-वीर्यान्तराय रूप आवरण के देशक्षय से अथवा सर्व क्षय से । देशक्षयजनित वीर्य छद्मस्थों के होता है और सर्वक्षयजनित वीर्य केवलियों के होता है। इनमें से प्रत्येक दो-दो प्रकार का है। अभिसन्धिजात और अनभिसन्धिजात ।
छद्मस्थों में जो कषायरहित सलेश्य वीर्य होता है वह उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह की अपेक्षा कहा गया है तथा केवलियों में जो कषायरहित सलेश्य वीर्य होता है वह सयोगिकेवलि की अपेक्षा से कहा गया है ।
छद्मस्थों का वीर्य कषायसहित तथा कषायरहित दोनों प्रकार का होता है। कषाय
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