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________________ प्रतिमा ]. ( वाग्भ. १ - ४ ) । २. प्रतिभा नव-नवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा । ( काव्यानु. वृ. १, १, ४ श्रलंका. चि. १ - ९ ) । ३. रात्रौ दिवा वा कस्माद् बाह्यकारणमन्तरेण श्वो मे भ्रातागमिष्यतीत्येवं रूपं यद्विज्ञानमुत्पद्यते सा प्रतिभा । (अन. ध. स्वो टी. ३ - ४ ) । ४. रात्रौ दिवा वा अकस्माद् वाह्यकारणं विना 'व्युष्टे ममेष्टः समेष्यति' इति एवंरूपं यद्विज्ञानमुत्पद्यते सा प्रतिभा । (त. वृत्ति श्रुत. १-१३ ) । २ नवीन-नवीन उल्लेखों से शोभायमान बुद्धि को प्रतिभा कहा जाता है ३ रात अथवा दिन में बाह्य कारण के विना 'कल मेरा भाई आवेगा' इस प्रकार का जो विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रतिभा कहते है । प्रतिमा- प्रतिमा यावज्जीवं नियमस्य स्थिरीकरणप्रतिज्ञा । (प्रा. दि. पू. ५१ ) । ग्रहण किये गये नियम को जीवन पर्यन्त स्थिर रखने की प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहते हैं । ७४४, जैन-लक्षणावली प्रतिमान - १. से कि परिमाणे ? जण्णं पडिमिणिज्जइ । तं जहा -- गुंजा कागणी निप्फावो कम्ममासन मंडल सुवण्णो । पंच गुंजाश्रो कम्ममासश्रो, कागण्यपेक्षया चत्तारि कागणीओ कम्ममासन, तिणि निष्फावा कम्ममासश्रो, एवं च उक्को कम्म मास काकण्यपेक्षयेत्यर्थः, बारसकम्ममासया मंडलो एवं डयालीसं कागणी मंडल सोलस कम्ममासया सुवण्णो एवं चउसट्टिकागणीओ सुवण्णो । एएणं पडिमाणपमाणेणं किं पत्रोणं ? एएणं पडिमाणपमाणेणं सुवण्ण-रजत-मणि-मोत्ति संखसिलप्पवालाईणं दव्बाणं पडिमाणप्पमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं परिमाणे । से तं विभागणिप्प - ण्णे । से तं दव्वपमाणे । ( अनुयो. सू. १३२, पृ. १५५) । २. पूर्वमानापेक्षं मानं प्रतिमानं प्रतिमल्लवत् । चत्वारि महिधिकातृणफलानि श्वेतसर्षप एकः, षोडशसर्षपफलानि धान्यमाषफलमेकम्, द्वे धान्यमाषफले गुञ्जाफलमेकम्, द्वे गुंजाफले रूप्यमाष एक:, षोडशरूप्यमाषका धरणमेकम्, अर्धतृतीयधरणानि सुवर्णः, स च कंसः, चत्वारः कंसा: पलम्, पलशतं तुला, अर्धकंसः त्रीणि च पलानि कुडवः, चतुः कुडवः प्रस्थः, चतुःप्रस्थमाढकम्, चतुराढकं द्रोणः, षोडशद्रोणा खारी, विंशति खार्यो वाह इत्यादि मागधक I Jain Education International [ प्रतिमोहनयोग्य मुनि प्रमाणम् । (त. वा. ३, ३८, ३) । ३. प्रतिमीयतेऽनेन गुंजादिना प्रतिरूपं वा मानं प्रतिमानम् । (अनुयो. हरि. वृ. पू. ७६ ) । । १ सदृश मान का नाम प्रतिमान है । जैसे—गुंजा, काकणी, निष्पाव, कर्ममाषक, मण्डलक और सुवर्ण ये प्रतिमान हैं । इनसे सुवर्ण आदि का प्रमाण किया जाता है । एक कर्ममाषक पांच गुंजा, अथवा चार काकणी, अथवा तीन निष्पाव का होता है । बारह कर्ममाषकों का, श्रथवा अड़तालीस काकनियों का एक मण्डलक होता है । सोलह कर्ममा - षकों का प्रथवा चौसठ काकणियों का एक सुवर्ण होता है । ( १३ गुंजा - काकणी, १३ काकणी = निष्पाव, श्रथवा १3 गुंजा = निष्पाव ) इस प्रतिमान के द्वारा सुवर्ण, चांदी, मणि, मोती, शंख, शिला और प्रवाल आदि का प्रमाण जाना जाता है। यह द्रव्यप्रमाण गुंजा आदि के विभाग से सिद्ध होने के कारण विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण माना गया है । २ पूर्व की अपेक्षा रखने वाले मान को प्रतिमान कहते हैं । जैसे–चार महिधिका तृणफलों का एक सफेद सर्षप होता है, सोलह सर्षप फलों का एक धान्यमाषफल ( उड़द), दो धान्यमाषफलों का एक गुंजाफल, दो गुंजाफलों का एक रूप्यमाष, सोलह रूप्यमाषों का एक धरण, अढ़ाई (२३) धरणों का एक सुवर्ण या कंस इत्यादि 'वाह' पर्यन्त मगधदेश प्रसिद्ध प्रमाण जानना चाहिए । प्रतिमोद्वहनयोग्य मुनि - सम्पूर्णविद्यो धृतिमान् वज्रसंहननं वहन् । महासत्त्वो जिनमते सम्यग्ज्ञाता स्थिराशयः ॥ गुर्वनुज्ञां वहन् चित्ते श्रुताभिगमतत्त्ववित् । विसृष्टदेहो धीरश्च जिनकल्पार्हशक्तिभाक् ।। परीषहसहो दान्तो गच्छेऽपि ममतां त्यजन् । दोष-धातुप्रकोपेऽपि न वहन् रागसंभवम् ।। श्रव्यञ्जनं रसत्यक्तं पानान्नं क्वापि कल्पयन् । ईदृशोऽर्हति शुद्धात्मा प्रतिमोहनं मुनिः ॥ ( श्राचा. दि. १-२६, पू. ११७ ) । जो सम्पूर्ण विद्याओं का ज्ञाता, धैर्यवान् वज्रसंहनन का धारक, जिनमतविषयक सम्यग्ज्ञानवान्, स्थिर श्राशय वाला, गुरु की प्राज्ञानुसार चलने वाला, श्रागमोक्त तत्त्वों का ज्ञाता, शरीर से निःस्पृह, जिनकल्प के योग्य शक्ति से सहित तथा परीषहों को सहने वाला हो; इत्यादि गुणों से सम्पन्न महामुनि For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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