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________________ प्रतिपृच्छा] ७४३, जैन-लक्षणावलो [प्रतिभा णोक्त इदं त्वया कर्तव्यमिति पुनः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छ- के स्वीकार करने को प्रतिपृच्छचं कसंग्रह कहते हैं। नम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ५८)। ४. पूर्वनिषि- यह भक्तत्यागमरण को स्वीकार करने वाले क्षपक द्धेन सता भवतेदं न कार्यमिति, उत्पन्ने च प्रयोजने के अादि लिंगों में से एक है। कर्तकामेन होति पडिपुच्छत्ति प्रतिपृच्छा कर्तव्या प्रतिप्रच्छना-देखो प्रतिपृच्छा। भवति । पाठान्तरं वा--पूव्वनिउत्तेन होइ पडि- प्रतिप्रश्न-देखो प्रतिपृच्छा। पूच्छा पूर्वनियुक्तेन सता यथा भवतेदं कार्यमिति प्रतिबद्धशय्या-१. तं चेव य सागरियं जस्स अदूरे तत्कर्तुकामेन गुरोः प्रतिपृच्छा कर्तव्या भवति- स पडिबद्धो। (बृहत्क. २५८३) । २. तदेव च अहं तत् करोमीति, तत्र हि कदाचिदसौ कार्यान्तर- सागारिकं यस्योपाश्रयस्य अदूरे आसन्ने स प्रतिबद्ध मादिशति, समाप्तं वा तेन प्रयोजनमिति । (प्राव. उच्यते । (बृहत्क. क्षे. वृ. २५८३)। नि. हरि. वृ. ६६७)। ५. एकदा पृष्टेन गुरुणा जिस उपाश्रय के पास में सागारिक (गृहस्थगृह नेदं कर्तव्यमित्येवं निषिद्धस्य विनेयस्य किञ्चिद् युक्त) प्रतिश्रय हो वह प्रतिबद्धशय्या कहलाती विलम्व्य ततश्चेदं चेदं चेह कारणमस्त्यतो यदि है । वहां निम्रन्थों का रहना उचित नहीं है। पूज्या आदिशन्ति तदा करोमीत्येवं पूनः प्रच्छनं प्रति- प्रतिबद्ध-प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वाज्ञान-निद्रापगमेन प्रच्छना, अथवा ग्रामादौ प्रेषितस्य गमनकाले पूनः सम्यक्त्वविकाशं प्राप्तम् XXX । (दशवै. हरि. प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना। (अनुयो. मलय. वृ. ११८, वृ. १-१४, पृ. १०)। पृ. १०३)। ६. यत्किचन्महत्कार्यं कार्य पृष्ट्वा मिथ्यात्व और अज्ञान रूप निद्रा के हट जाने से जो यतीश्वरान् । विनयेन पुन: प्रश्न: प्रतिप्रश्न: प्रकी- सम्यक्त्व के विकाश को प्राप्त कर चुका है उसे तितः ।। (प्राचा. सा. २-१४)। प्रतिबुद्ध कहा जाता है। प्रकृत विशेषण के द्वारा १ जो कार्य करने योग्य है उसके विषय में गरु नियुक्तिकार ने शय्यम्भव सूरि की विशेषता प्रगट आदि से पूछ कर फिर से भी साधुओं से पूछना, इसका नाम प्रतिपृच्छा है । (गाथोक्त 'साह' पद को प्रतिबुद्धजीवी- जस्सेरिसा जोग जिइंदिअस्स यदि प्रथमान्त माना जाय तो साधु जो उसके धिईमग्रो सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाहु लोए पडिबुद्धविष्य में फिर से भी पूछता है, यह प्रतिपृच्छा का जीवी सो जीपई संजमजीविएणं ॥ (दशवै. सू. लक्षण जानना चाहिए)। ४ 'पापको यह कार्य नहीं चूलिका २-१५)। करना है' ऐसा पूर्व में निषेध कर देने पर यदि जिस धैर्यशाली जितेन्द्रिय महापुरुष के ऐसे-अपने प्रयोजन के वश उसका करना प्रावश्यक हो जाता हित के विचार व प्रवृत्तिरूपयोग सदा रहते हैं, है तो प्रतिपृच्छा करना चाहिए-उसका पूछना उसे प्रतिजुद्धजीवी कहा जाता है। उसका जीवन आवश्यक होता है। अथवा गाथा में 'निषिद्धन के संयमप्रधान होता है। स्थान पर 'निउत्तेन' पाठ की सम्भावना में-'पाप प्रतिबोधनता ---- सम्मइंसण-णाण-वद-सीलगुणाणयह कार्य कीजिये' इस प्रकार जिस कार्य में पहले मज्जालणं कलंकपक्खालणं संधुक्ख णं वा पडिबुनियुक्त किया गया है उसे जब करने लगे तब पूछ झणं णाम, तस्स भावो पडिवुझणदा। (धव. पु. लेना चाहिये कि 'मैं उसे कर रहा है। कारण ८, पृ. ७५)। इसका यह है कि तब किसी अन्य ही कार्य का सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील इन गुणों को आदेश किया जा सकता है, अथवा यह भी हो निर्मल करना; इसका नाम प्रति बोधाता है। सकता है कि पूर्व निर्दिष्ट कार्य का प्रयोजन समाप्त प्रतिबोधी-यत् कथ्यते अभिधीयते तत्सर्वं यः हो चुका हो। प्रतिबुध्यते स प्रतिबोधी । (बृहत्क. क्षे. वृ. ७३६) । प्रतिपृच्छच कसंग्रह- प्रतिपृच्छय कसंग्रहः संघं जो कुछ भी कहा जाता है उसे जो पूर्ण रूप से ग्रहण पुनः पृष्ट्वा तदनुमतेनैकस्य क्षपकस्य स्वीकारः। करता है उसे प्रतिबोधी कहते हैं । (अन. ध. स्वो. टी. ७-९८)। प्रतिभा-१. प्रसन्नपद-नव्यार्थयुक्त्युबोवविधायिसंघ से पूछ कर उसकी अनुमति से किसी एक क्षपक नी। स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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