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________________ संश्रय] प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा यद्यपि वस्तु को जान लिया है, फिर भी अन्य देश व प्रग्य काल में 'यही है व इसी प्रकार की है' ऐसा निर्णय न कर सकने के कारण तथा अपने को प्राप्त मानने वाले भी जो उसकी प्ररूपणा करते हैं उनके परस्पर विरुद्ध शास्त्र के उपदेष्टा होने से ठगे जाने की प्रशंका से तत्त्व ऐसा है या नहीं है इस प्रकार उभय पक्ष का प्रालम्बन करने वाला संशयपूर्वक जो श्रद्धान होता है उसे संशयित मिथ्यात्व कहते हैं । संश्रय - परस्यात्मार्पणं संश्रयः । ( नीतिवा. २६, ४७, पृ. ३२४) । शत्रु के बल को देखकर जो श्रात्मसमर्पण किया जाता है, इसे संश्रय कहते हैं । संश्लेषबन्ध - १. जो सो संमिलेसबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो- जहा कटु-जदूणं अण्णोष्णसंसिलेसिदाणं बंधो संभवदि, सो सव्वो संसिलेसबंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, ४३ – पु. १४, पृ. ४१) । २. जतुकष्ठादि संश्लेषबन्धः । (त. वा. ५, २४, १३) । ३. रज्जु-वरत- कट्ठादीहि विणा अल्लीवणविसेसे हि विणा जो चिक्कण- श्रचिक्कणदव्वाणं चिक्कणदव्वाणं वा परोप्परेण बंधो सो संसिलेसबंधो णाम । ( धव. पु. १४, पू. ३७ ) ; लक्खाए कटुस्स जो अण्णोष्णसंसिलेसेण बंधो सो संसिलेसबंधो णाम । ( घव. पु. १४, पू. ४१ ) । १ परस्पर संश्लेश को प्राप्त हुए लाख और काष्ठ श्रादि में जो बंध संभव है उसे संश्लेषबंध कहते हैं । ३ रस्सी, वरत्रा ( विशिष्ट रस्सी) और लकड़ी आदि के विना जो चिक्कण श्रचिक्कण व चिक्कण द्रव्यों का परस्पर में बंध होता है उसे संश्लेषबंध कहा जाता है । संसक्त तपस्वी- ग्राहार- उवहि-पूयासु जस्स भावो उ निच्चसंसत्तो | भावोवहतो कुणइ अ तवोवहाणं तट्ठा II (बृहत्क. भा. १३१७) । जिसका परिणाम श्राहार, उपधि और पूजा में सदा सम्बद्ध रहता है तथा जो रसगौरवादि भाव से अभिभूत होकर उसी के लिए अनशन श्रादि तप को किया करता है उसे संसक्त तपस्वी कहा जाता है । संसक्त श्रमण - १. मंत्र - वैद्यक- ज्योतिष्कोपजीवी राजा दिसेवकः संसक्तः (चा. सा. पू. ६३ ) । ल. १४३ Jain Education International [ संसार २. संसक्तो वैद्य मंत्रावनीश सेवा दिजीवनः । (प्राचा. सा. ६-५१) । ३. संसक्तः संसर्गवशात् स्थापितादिभोजी । ( व्यव. भा मलय. वृ. ३ - १६५ ) ; संसक्त इव संसक्तः, पार्श्वस्थादिकं तपस्विनां चासाद्य सन्नि हितदोषगुवा ( ? ) इत्यर्थ: । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ३-२०८ ) । १ जो साधु मंत्र, वैद्यक और ज्योतिष से प्राजीविका करता हुया राजा श्रादि की सेवा किया करता है उसे संसक्त श्रमण कहा जाता है । ३ संसर्ग के वश जो स्थापित श्रादि का भोजन किया करता है उसे संसक्त श्रमण कहते हैं । संसार - १. कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । ( स. सि. ६ - ७) । २. श्रात्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । श्रात्ममनोपचितं कर्माष्टविधं प्रकृति- स्थित्यनुभाग- प्रदेशब भेदभिन्नम् तद्वशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसार इत्युच्यते । (त. वा. २, १०, १ ) ; द्रव्यादिनिमित्ता श्रात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । (त. वा. ६, ७, ३; त. इलो. ६-७ ) । ३. संसरणं संसार:, तिर्यग्नर-नारकामरभवानुभूतिरूपः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ७८६ व १२५१) । ४. तिर्यग्नर-नारकामरभवसंसरणरूपः संसारः । ( बशवं. नि. हरि. वृ. ५६) । ५. संसरन्ति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषु गतिष्विति घातिकर्मकलापः संसारः । ( धव. पु. १३, पृ. ४४ ) । ६. ग्रात्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । (त. इलो. २ – १० ) । ७. स्वोपात्तकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसार: । ( भ्रष्टस. ६) ८. द्रव्य क्षेत्र काल-भवभावेषु परिवर्तमानः संसारः । ( भ. प्रा. विजयो. ४४६ ) । ६. संसारश्चतसृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम् । (चा. सा. पृ. ७६ ) । १०. एक्कं चयदि सरीरं प्रण्णं गिण्हेदि णव-णवं जीवो। पुणु पुणु ष्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहुबारं । एवं जं संसरणं णाणादेहेसु हवदि जीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छ कसायेहि जुत्तस्स ॥ ( कार्तिके. ३२-३३) । ११. ग्रन्थानुबन्धी संसार: × × ×। (क्षत्रचू. ६ - १७) १२. संसारं गर्भादिसंचरणम् XXX। ( सिद्धिवि. टी. ७-८, पू. ४६२ ) । १३. संसारो नानायोनिषु सचरणम् । ११३७, जैन-लक्षणावली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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