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________________ संसारपरीत] ११३८, जैन-लक्षणावली [संसृष्ट (योगशा. स्वो. विव. ४-६५) । वह स्वयं अपना ही पुत्र हो जाता है, इत्यादि १ कर्म के उदयवश जो अन्य अन्य भव की प्राप्ति प्रकार से संसार के स्वभाव का जो विचार किया होती है, इसे संसार कहा जाता है। ३ तिर्यञ्च, जाता है उसे संसारानप्रेक्षा कहते हैं। मनुष्य, नारक और देव पर्याय का जो अनुभव संसारापरीत-देखो अपरीतसंसार । संसारापरीतः होता है उनमें गमनागमन होता है, इसी का नाम सम्यक्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः । (प्रज्ञाप. संसार है। मलय. वृ. २४७, पृ. ३६४)। संसारपरीत-देखो परीतसंसार व संसारापरीत। जो सम्यक्त्व प्रादि के आश्रय से संसार को यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसारः स संसार- मित नहीं कर सका है उसे संसारापरीत कहा परीतः। (प्रज्ञाप, मलय. व. २४७, पृ. ३६४)। जाता है। जिसने सम्यक्त्वादि के प्राश्रय से संसार को परि- संसारी जीव -१. जे संसारी जीवा च उगइपज्जाय मित कर दिया है उसे संसारपरीत कहा जाता है। परिणया णिच्चं । ते परिणामे गिण्हदि सुहासूहे संसारानुप्रेक्षा-- १. तस्मिन्नने कयोनि-कुलकोटि- कम्मसंगहणे ॥ (मावसं. दे. ४)। २. अनादिकर्मबहुशतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् जीवः कर्म- संतानसंश्लेषात् क्लेशभाजनम् । संसारी स्यात् त्रसयन्त्रप्रेरितः पिता भूत्वा भ्रात। पुत्र: पौत्रश्च भवति, स्थावराद्यै भैदैरनेकधा । (प्राचा. सा. ३-१२) । माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति, ३. कम्मकलंकालीणा अलद्धसहावभावसब्भावा । गुणस्वामी भूत्वा दासो भवति, दासो भूत्वा मग्गण-जीवट्ठियजीवा संसारिणो भणिया ॥ (द्रव्यस्वाम्यपि भवति, नट इव रङ्गे । अथवा किं स्व. प्र. नयच. १०८)। ४. पंचविधेऽत्र संसारे बहुना ? स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवमादिसंसार- जीवः संसरति स्वयम् । तस्माद्भवति संसारी कृतस्वभावचिन्तनं संसारानुप्रेक्षा । (स. सि. ६-७)। कर्मप्रचोदितः ॥ (भावसं. वाम. ३५०) । २. xxx एवमेतस्मिन्ननेकयोनि-कुलकोटिबहु- १ जो चार गतिरूप पर्याय से परिणत होकर सदा शतसहस्रसंकटे संसारे परिभ्रमन् अयं जीवः कर्म-यंत्र- अपने उपाजित कर्म के अनुसार शुभ-अशुभ परिप्रेरितः पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति, णामों को ग्रहण किया करते हैं उन्हें संसारी जीव माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति । किं कहते हैं। ३ जो कर्म-कालिमा से व्याप्त होकर बहुना ? स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवमादिसंसार- अपने स्वाभाविक भाव को नहीं प्राप्त कर सके हैं स्वभावचितनं संपारानुप्रेक्षा। (त. वा. ६, ७,३; तथा गुणस्थान एवं मार्गणारूप जीवस्थानों में स्थित चा. सा. पृ. ८२-८३)। ३. वृत्त्या जातिगतिष्व- हैं उन्हें संसारी जीव कहा गया है। वाप्तकरणोऽनन्तांगहारः सदा, प्रोद्भूतिप्रलयो नरा- संसृति-देखो संसार । प्रज्ञानात् कायहेतुः स्यात् मर-मृगाद्याहार्यपर्यायवान् । हित्वा सात्त्विकभाव- कर्मागमनमिहात्मनाम् । प्रतीके स्यात्प्रबन्धोऽयमजातमित रैर्भावः स्वकर्मोद्धवैर्जीवोऽयं नटवभ्रम- नादिः सैव संसृतिः ।। (क्षत्रचू. ७-१७)। त्याभिनवः सर्वत्र लोकत्रये ॥ (पाचा. सा. १०, प्राणियों के अज्ञानता के वश जो कर्म का प्रास्रव ३५) । होता है वह शरीर के ग्रहण का कारण है। इस १ अनेक योनियों और लाखों कुलकोटियों से कष्ट- प्रकार अनादि से जो शरीर का ग्रहण, उसके पूर्ण संसार में परिभ्रमण करता हा जीव कर्मरूप सम्बन्ध से कर्म का ग्रहण तथा उससे पुनः शरीर यंत्र से प्रेरित होता हुमा पिता होकर भाई, पुत्र का ग्रहण, इस प्रकार से जो परम्परा चलती है, और पौत्र भी होता है। इसी प्रकार वह माता इसी का नाम संसृति है। होकर बहिन, पत्नी और पुत्री भी होता है । वह संसृष्ट-१. संसिट्ठ शाक-कुल्माषादिसंसृष्टमेव । स्वामी होकर दास और दास होकर स्वामी भी (भ. प्रा. विजयो. २२०) । २. संसिट्ठ व्यंजनहोता है । इस प्रकार से वह रंगभूमि में अभिनय सम्मिश्रम् । (भ. प्रा. मूला. २२०)। करने वाले नट के समान इस संसार में अनेक रूपों १ शाक व कुल्माष (कुलथी) प्रादि से मिश्रित को धारण करता है। अधिक क्या कहा जाय ? भोजन को संसृष्ट कहते हैं। वृत्तिपरिसंख्यान तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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