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________________ मृषावाद ] मृषावाद प्रसंतवणं मुसावादी । किमसंतवयणं ? मिच्छत्तासंजमकषाय- पमादुट्टावियो वयणकलावो । (घव. पु. १२, पृ. २७९ ) । प्रशस्त वचन का नाम भूषावाद है । ऐसा वचनकलाप मिथ्यात्व, श्रसंयम, कषाय और प्रमाद के श्राश्रय से उत्पन्न होता है । मृषावादविरमण - अहावरे दुच्चे भंते महत्वए मुसावाया वेरमणं । सव्वं भंते मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुखं वइज्जा नेवऽन्नेहि मुसं वायाविज्जा मुसं वयं तेऽवि अन्नेन समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए का एणं न करेमि न कारवेम करतं पि श्रन्नं न समणुजाजामि, तस्स भंते पक्किमामि निदामि गरिहामि श्रप्पाणं वोसिरामि । दुच्चे भंते महव्वए उवद्विप्रोमि सव्वाश्रो मुसावायाश्रो वेरमणं ।। ( दशवं. सु. ४-४, पु. १४६) । क्रोध, लोभ, भय प्रथवा परिहास से असत्यभाषण के परित्याग की प्रतिज्ञा करना कि मैं न स्वयं असत्य बोलूंगा, न दूसरों को उसके बोलने के लिए प्रेरणा करूंगा, स्वयं प्रसत्य भाषण करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करूंगा; जीवन पर्यन्त मैं मन, वचन एवं काय से न स्वयं करूंगा, न कराऊंगा और न करते हुए अन्य की अनुमोदना करूंगा; इस प्रकार से प्रसत्य वचन का परित्याग करने वाले के मृषावादविरमण नाम का दूसरा महाव्रत होता है । मेघ - वारिसु वा कसणवण्णा मेहा णाम । (घव. पु. १४, पृ. ३५ ) । वारिश के समय काले रंग के जो बादल हुधा करते हैं उन्हें मेघ कहा जाता है । मेघचारण- १. अविराहिदूण जीवे अपुकाए बहुविहाण मेघाणं । जं उवरि गच्छिइ मुणी सा रिद्धी मेघचारणा णाम । ( ति प ४ - १०४३) । २. नभोवर्त्मनि प्रविततजलधरपटलपटास्तरणे जीवानुपघातिचङ्क्रमणप्रभवो मेघचारणाः । ( योगशा. स्व. वि. १-६, पु. ४१ ) । १ मुनि बहुत प्रकार के मेघों के जलकायिक जीवों को विराधना न करके जो उनके ऊपर से जाता है, इसे मेघचारण ऋद्धि कहा जाता है । 1 Jain Education International ६३४, जैन - लक्षणावली [मेषसमान शिष्य मेद -- मेदो वसा मांससम्भवम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-७२ ) । मांस से जो शरीरगत धातु उत्पन्न होती हैं उसे मेदा (चव) कहा जाता है । मेघा - १. मेघा ग्रन्थग्रहणपटुः परिणामः ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमजः चित्तधर्म इति भावः । (ललिवि. पू. ८१ ) । २. मेध्यति परिच्छिनत्ति अर्थ - मनया इति मेधा । ( धव. पु. १३, पृ. २४२) । ३. मेधा च सच्छास्त्रग्रहणपटुः पापश्रुतावज्ञाकारी ज्ञानावरणीय क्षयोपशमजश्चित्तधर्मः, अथवा मेघा मर्यादावर्तिता । (योगशा. स्वो विव. ३-१२४ ) । ४. विशिष्टो ग्रन्थग्रहणपटुरात्मनः परिणामविशेषो मेघा । (धर्मसं. मलय. पू. १४) । ५. पाठग्रहणशक्तिर्मेधा । (न. घ. स्वो टी. ३-४; त. वृत्ति श्रुत. १-१३ ) । ६. XXX मेधा कालत्रयात्मिका । (त. वृत्ति श्रुत. १-१३ उद् . ) । १ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला जो चित्त का धर्म ग्रन्थ के ग्रहण करने में दक्ष होता है उसे मेधा कहते हैं । जाना जाता है उसका नाम का एक नामान्तर है । मेधावी - मेघा विद्यते येषां ते मेधाविनो ग्रहणधारणसमर्थाः । (सूत्रकृ. सू. शी. २, ६, १६, पृ. १४४) । २ जिसके द्वारा पदार्थ मेघा है । यह श्रवग्रह जो मेधा के स्वामी होकर ग्रहण व धारण में समर्थ होते हैं वे मेघावी कहलाते हैं। मेरक- मेरकं तालफल निष्पन्नम् । ( विपाक. अभयवृ. पु. २३) । ताल के फल से जो मद्य उत्पन्न होता है उसका नाम मेरक है । मेषसमान शिष्य - यथा मेषो वदनस्य तनुत्वात् स्वयं च निभृतात्मा गोष्पदमात्रस्थितमपि जलमकलुषीकुर्वन् पिवति तथा यः शिष्योऽपि पदमात्रमपि विनयपुरः सरमाचार्यचित्तं प्रसादयन् पृच्छति स मेषसमानः स चैकान्तेन योग्य: । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पू. १४४ ) । जिस प्रकार मेष मुख के छोटे होने से गाय के खुर के प्रमाण में भी स्थित जल को कलुषित न करके पीता है उसी प्रकार जो शिष्य भी विनयपूर्वक प्राचार्य के चित्त को प्रसन्न करता हुआ पद मात्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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