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________________ मृत्युगंगा] ६३३, जैन-लक्षणावला [मृषावचन अनुभवन करते हुए जो पूर्णरूप से उनका विनाश मृषारौद्रं प्रकीर्तितम् ॥ (ज्ञाना. २६-१६, पृ. २६५)। हो जाता है, इसे मृत्यु कहते हैं। ६ सादि, सान्त ६. रोषेाद्युदितरसत्यवचनैरन्यस्य हान्या मृषानन्दं और मर्त इन्द्रियों से विजातीय ऐसी नर-नरकादि रोद्रमसातसन्ततिपदे मिथ्याप्रलापे रुचिः। (प्राचा. विभाव पर्यायों के विनाश का ही नाम मृत्यु है। सा. १०-२०)। ७. मृषा असत्यम्, तदनुबध्नाति -सत्तसादीण गंगाग्रो सा एगा मच्च पिशुनाऽसभ्यासद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धि । गंगा । (भगवती. १५-८६, पृ. २०५५)। (स्थाना. अभय. वृ. ४, १, २४७)। ८. असत्यसात सादीन गंगानों की एक मृत्युगंगा होती है। वचने परिणतः मृषावादकरणे परिणतः अनृतानन्दा ख्यं रौद्रध्यानम् । (कार्तिके. टी. ४७५) । ६. पैमृदङ्ग-मृदङ्गो वाद्यविशेषः, स चाधस्तात् विस्तीणं उपरि च तनुकः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१६, पृ. शून्यासभ्य-वितथवचसा परिचिन्तनम् । अन्येषां ५४२)। द्रोहबुद्ध या यन्मृषावादानुबन्धि यत् ।। (लोकप्र. ३०, मृदंग एक प्रकार का वह बाजा है जो नीचे विस्तृत ४४७) । १०. पिशुनासभ्यासद्भूत-भूतघातादिवचनऔर ऊपर कृश होता है। प्रणिधानं मृषानुबन्धि । (धर्मस. मान. स्वो. वृ. ३-८७, पृ. ८०)। मृदु -- १. सनतिलक्षणो मृदुः । (अनुयो. हरि. वृ. १ जो कर्म के भार से युक्त होने के कारण सदा ही पृ. ६०)। २. सो [स.] नतिलक्षणो मृदुः। (त.. असत्य या असमीचीन व प्रसद्भुत वचनों से सन्तुष्ट भा. सिद्ध. ३.५-२३)। ३. सन्नतिकारणं तिनि रहता है तथा जो नहीं देखे गये हैं उनको देखे गये सलतादिगतो मृदुः । (कर्मवि. स्वो. वृ. ४०)। कहता है, इत्यादि ये सब मृषानुबन्धी रौद्रध्यान के १ सम्यक् प्रकार से जो नमने की स्थिति होती है, लक्षण हैं। ३ श्रद्धा के योग्य तत्त्व के विषय में यह मृदु का लक्षण है। अपनी कल्पित युक्तियों के द्वारा दूसरों के ठगने का मृदस्पर्शनाम-१. एवं सेसफासाणं पि अत्थो जो विचार रहता है उसे मषानन्दरौद्रध्यान कहते हैं । वत्तव्वो (जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गलाणं मृषानुबन्धी-देखो मृषानन्दरौद्रध्यान । मडवभावो होदि तं मडवं णाम)। (धव. पु. ६, मृषाभाषा - देखो मोषवाक् । १. विराहिणी पृ. ७५) । २. यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु मृदुः स्पर्शो मोसा। (प्रज्ञाप. १६१, पृ. २४६) । २. xxx भवति तत् मृदुस्पर्शनाम । (सप्तति. मलय. वृ. ६)। मोसा विराहिणी होइ। (दशवं. नि. २७२)। ३. यदृदयाज्जन्तूशरीरं हंसरुतादिव मृदु भवति तद् ३. विपरीत स्वरूपा मुषा | XXX उक्त च-- मृदु स्पर्शनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४०)। ___xxx तविवरीया मोसा xxxn (प्रज्ञाप. १ जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में मृदुता मलय. वृ. १६१)। होती है उसे मृदु नामकर्म कहते हैं। १ जो भाषा यथार्थ वस्तुस्वरूप के प्ररूपक सत्य की मृषानन्दरौद्रध्यान--देखो अनृतानन्द । १. मोसा- विराधक होती है उसे मृषा भाषा कहते है । णुबंधी णाम जो कम्मभारिययाए निच्चमेव असंत- मृषामनयोग- देखो मोषमनयोग । असब्भूतेहिं अभिरमइ, अदिवाणि य भणइ दिट्ठाणि मृषारौद्रध्यान- देखो मृषानन्दरौद्रध्यान । मए, एवमादि मोसाणुबन्धी । (दशर्व. चू. पृ. ३१)। मृषावचन-देखो मृषाभाषा। १. प्रागभिहित२. पिसुणाऽसब्भासब्भूय-भूयधायाइवयणपणिहाणं । सामान्यलक्षणयोगे सति सद्भूतनिह्नवासद्भूतोद्मायाविणोऽतिसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ।। (ध्यान- भावन-विपरीत-कटुक-सावद्यादि मृषावचनम् । (त. श. २०)। ३. श्रद्धेये परलोकस्य स्वविकल्पित- भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ७-१)। २. तदेव प्रमाणेयुक्तिभिः । विप्रलम्भनसंकल्पो मृषानन्दं सुनन्दितम् ॥ बर्बाध्यमानं सन्मृषा । (प्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. (ह. पु. ५६-२३)। ४. मृषानन्दो मृषावादरति- पृ. ७६) । सन्धानचिन्तनम् । वाक्पारुष्यादिलिङ्गं तत् द्वितीयं १ सद्भूत के अपलापक, असद्भूत के प्रकाशक, रौद्रमिष्यते ॥ (म. पु. २१-५०)। ५. असत्य- विपरीत, कटुक और पापयुक्त वचन को मृषावचन कल्पनाजालकश्मलीकृतमानसः । चेष्टते यज्जनस्तद्धि कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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