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________________ मूलप्रयोगकरण] मूलप्रयोगकरण - देखो मूलकरण । पञ्चानामौदारिकादिशरीराणामाद्यं सङ्घातकरणं मूलप्रयोगकरणमुच्यते । ( श्राव. भा. मलय. वृ. १५८, पृ. ५५ε)। श्रदारिक श्रादि पांच शरीरों का जो प्रथम संघात करण है उसे मूलप्रयोगकरण कहा जाता है । मूलप्रायश्चित्त-१. मूलं नाम सो चेव से परिया मूलतो छिज्जइ । ( वशवं चू. पृ. २६ः । २. 'मूल' त्ति प्राणातिपातादौ पुनव्रं तारोपणम् । ( श्राव. हरि. वृ. पू. ७६४ ) । ३. सव्वं परियाय महारिय पुणो दिक्खणं मूलं णाम पायच्छित्तं । धव. पु. १३, पृ. ६२) । ४. मूलारिहं – जेण पडिसेविएण पुणो महव्वया रोवणं निरवसेसपरियायावणयणान्तरं कीरइ, एयं मूलारिहं । ( जीतक. चू. पू. ६ ) । ५. मूलं महाव्रतानां मूलत श्रारोपणम् । (योगशा. स्वो विव. ४ - ६० ) । ६. मूलं पार्श्वस्थ संसक्त-स्वच्छन्देष्ववसन्तके । कुशीले च पुनर्दीक्षा दानं पर्यायवर्जनात् ॥ ( प्रन. ध. ७- ५५ ) । ७. पुनरद्यप्रभृतिव्रतारोपणं मूलप्रायश्चित्तम् । ( कार्तिके. टी. ४५१) । १ अपराध को जानकर उसी साधुपर्याय को मूलतः नष्ट कर देना, इसका नाम मूलप्रायश्चित्त है । ३ समस्त पूर्व पर्याय का अपहरण करके फिर से दीक्षा देना, इसे मूलप्रायश्चित्त कहते हैं। मूलहर - १. यः पितृपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः । ( नीतिवा २-८; योयशा. स्वो विव. १-५२) । २. तथा च गुरुः - पितृपैतामहं वित्तं व्यसनैर्यस्तु भक्षयेत् । श्रन्यन्नोपार्जयेत् किंचित् स दरिद्रो भवेद् ध्रुवम् ॥ ( नीतिवा. टी. २-८ ) । १ जो पिता और पितामह के धन को अन्यायपूर्वक खाता है - दुर्व्यसनों द्वारा नष्ट करता है व स्वयं कुछ कमाता नहीं है- उसे मूलहर कहा जाता है । मृग - रोमन्थवजितास्तिर्यञ्च मृगाः नाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६१ ) । रोमन्थ से रहित जो भी तिर्यञ्च हैं उन्हें मृग कहा जाता है । ३२, जैन-लक्षणावली मृगचारित्र - १. त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्रः स्वच्छन्दः इति वा । (चा. सा. पू. ६३ ) । २. स्वच्छन्दो यो गणं त्यक्तुं [क्त्वा ] चरत्येकाक्यसंवृतः । मृगचारी Jain Education International [मृत्यु XXX ॥ ( श्राचा. सा. ६-५२ ) । ३. स्वच्छन्दो यस्त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्द विहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्र इति यावत् । उक्तं च - प्रायरियकुलं मुच्चा विहरदि एगागिणो य जो समणो । जिणवयणं णिदंतो स्वच्छंदो हवइ निगचारी ॥ (अन. ध. स्वो टी. ७-५५) । १ जो गुरुकुल को छोड़कर स्वेच्छा से अकेला ही विहार करता है तथा जिनागम को दूषित करता है उसे मृगचारित्र कहते हैं। मृगचारी व स्वच्छन्द भी उसे कहा जाता है। यह पार्श्वस्थ श्रादि पांच कुत्सित साधुनों में से एक है । मृगचारी - देखो मृगचारित्र । मृगयाव्यसन – यत्तु मृगया आखेटकस्तत्रानेकेषां मृगादिजन्तूनां वधं करोति तद्मृगयाव्यसनम् । (बुहल्क. भा. क्षे. वृ. ६४० ) । मृगया नाम शिकार का है, उसमें जो अनेक मृग प्रादि प्राणियों का घात किया करता है उसे मृगया व्यसन कहते हैं । मृतकशायी - मडयसाई मृतकस्येव निश्चेष्ट शयनम् । (भ. प्रा. मूला. २२५ ) । जो मृतक के समान हलन चलन से रहित होकर सोता है, उसे मृतकशायी कहते हैं। यह क्षपक के शयन करने के प्रकारों में से एक है । मृत्यु - - देखो मरण । १. मरणं प्राणनाशः । (ललित. वि. पू. १०१ ) । २. मरणं प्राणत्यागलक्षणम् X X X 1 ( पञ्चसू. वृ. पू. १३) । ३. मरणं दशविधप्राणवियोगरूपम् । XXX | ( श्राव. नि. ५६६) । ४. प्रागुपात्त जीवन कालावधे रर्वाक्काले स्वोपात्तमनुष्याद्यायुर्द्रव्याणामनुभवतः कृत्स्नपरिक्षयो मृत्यु: । ( त. भा. सिद्ध वृ. २- ५१ ) । ५. मृत्यु: प्राणोपरमः । ( ललितवि. मुनि वृ. पू. २३) । ६. सादि निधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनर-नारकादिविभावव्यञ्जन पर्याय विनाशः एव मृत्युः । (नि. सा. वृ. ६ ) । ७. मृर्तिम्रियमाणता । ( काव्यानु. २, पू. ८५ ); सर्व विष-गजादिसंभवोऽभिघातस्ताभ्यां मृतेः प्रागवस्था मृतिः । ( काव्यानु. २, पृ. ८ ) । १ प्राणों के विनाश को मृत्यु या मरण कहा जाता है । ४ पूर्व में प्राप्त जीवनकाल की अवधि के पहिले ही — पूर्वबद्ध प्रायुप्रमाण के पूर्व हो - प्रपने प्राप्त (भुज्यमान) मनुष्यादि प्रायुद्रव्यों का (निषेकों का ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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