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________________ क्षेत्रमास] ३६६, जैन-लक्षणावली त्रिव्यतिरेक प्रदेशों को भी क्षेत्रमङ्गल कहते हैं। ३. क्षेत्रवृद्धिश्चंकतो योजनशतमभिग्रहीतमन्यतो क्षेत्रमास-यस्मिन क्षेत्रे मासस्य वर्णना स मास-- दशयोजनानि । ततस्तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्य क्षेत्रप्राधान्यविवक्षायां तत्क्षेत्रमास इत्यपि द्रष्टव्यम् । योजनशतमध्यादपनीयान्येषां दशादियोजनानां तत्रैव (व्यव. भा. मलय, वृ. २-१४, पृ. ६)। स्वबुद्धधा प्रक्षेपो वृद्धिकरणमिति । (श्रा. प्र. टी. जिस क्षेत्र में मास का वर्णन किया जावे उसे क्षेत्र. २८३) । ४. अभिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिप्रधानता की विवक्षा से क्षेत्रमास कहते हैं। क्याभिसम्बन्धः क्षेत्रवृद्धिः। (त. लो. ७-३०)। क्षेत्रलोक-१. आयासं सपदेसं उड्ढमहो तिरिय- ५. प्राग दिशो योजनादिभिः परिच्छिद्य पुनर्लोभ. लोगं च । खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं ।। वशात्ततोऽधिकाकांक्षणं क्षेत्रवद्धिः। (चा. सा. पु. (मूला. ७-४६%; धव. पु. ४, पृ. ७ उद्.)। २. २८)। ६. तथा क्षेत्रस्य पूर्वादिदेशस्य दिग्व्रतविअागासस्स पएसा उड्ढं च अहे य तिरियलोए य। षयस्य हस्वस्य सतो वद्धिर्वर्द्धनं पश्चिमादिक्षेत्रान्तजाणाहि खित्तलोग अणंतजिणदेसि सम्म। (प्राव. रपरिमाणप्रक्षेपेण दीर्धीकरणं क्षेत्रवृद्धिः। (ध. बि. भा. १९७, पृ. ४६५) । ३. क्षेत्रलोक आकाश- मु. वृ. ३-२८% योगशा. स्वो. विव. ३-६७; सा. मात्रमनन्तप्रदेशात्मकम् । (स्थानां. अभय. व. १, घ. ५-५)। ७. व्यासंग-मोह-प्रमादादिवशेन लोभा वेशाद योजनादिपरिच्छिन्न दिकसंख्याया अधिका१ प्रदेशयुक्त आकाश तथा ऊर्ध्व, अषः और कांक्षणं क्षेत्रवृद्धिः । यथा मन्या[मान्य] खेटावस्थितिर्यक लोक इस सब को क्षेत्रलोक समझना तेन केनचित् श्रावकेण क्षेत्रपरिमाणं कृतं यत् 'धाराचाहिए। पुरीलङ्घनं मया न कर्तव्यम् इति', पश्चात् उज्जक्षेत्रवर्गरणा-एगागा[सपदे]सोग्गाहणपहुडि पदे- यिन्याम् अन्येन भाण्डेन महान् लाभो भवतीति सुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे त्ति ताव एदामो तत्र गमनाकाक्षा गमनं वा क्षेत्रवृद्धिः । दक्षिणाखेत्तवग्गणाओ। (घव. पु. १४, पृ. ५२)। पथागतस्य धारायाः उज्जयिनी पञ्चविंशतिगव्यूएक आकाशप्रदेश प्रवगाहना से लेकर प्रदेशाधिक तिभिः किचिन्यूनाधिकाभि: परतो वर्तते । (त. बृ. क्रम से कुछ कम घनलोक तक जितने विकल्प हैं, श्रत. ७-३०, कार्तिके. टी. ३४१-४२)। ८. यथा ये सब क्षेत्रवर्गणाएं कहलाती हैं। सत्यमित: क्रोशः शतं यावद् गतिर्मम । क्रोशा मालक्षेत्रविमोक्ष - क्षेत्रविमोक्षस्तु यस्मिन क्षेत्रे वदेशीया क्षेत्रवृद्धिश्च दूषणम् ॥ (लाटीसं. ६-१२०)। चारकादिके व्यवस्थितो विमुच्यते, क्षेत्रदानाद्वा, १ ग्रहण किये गये दिशा के प्रमाण से लोभवश उससे यस्मिन वा क्षेत्र व्यावर्ण्यते स क्षेत्रविमोक्षः । अधिक का अभिप्राय रखना, इसका नाम क्षेत्रवृद्धि (पाचारा. नि. शी.बु. १, ७, १. २५८, पृ. २३६)। है। यह अतिक्रमण प्रमाद, मोह अथवा कार्यब्याप्राणी चारक (कारागार) प्रादि जिस क्षेत्र में संग से होता है। ३ दिग्वत में किसी ने एक ओर अवस्थित रहकर मुक्ति पाता है वह क्षेत्रविमोक्ष सौ योजन प्रमाण और दूसरी ओर दस योजन कहलाता है । अथवा क्षेत्र के दान से जिस क्षेत्र से प्रमाण जाने का नियम किया, पश्चात् जिस ओर छुटकारा पाता है वह क्षेत्र विमोक्ष है। अथवा जिस दस योजन का नियम किया था उस प्रोर कार्यक्षेत्र में विमोक्ष का वर्णन किया जाता है उसे क्षेत्र विशेष के उपस्थित होने पर सौ योजन प्रमाण विमोक्ष जानना चाहिए। क्षेत्र में से कुछ योजनों को कम करके स्वबुद्धि से क्षेत्रवृद्धि --१. परिगृहीताया दिशो लोभावेशादा- उधर के क्षेत्र में उतने योजन बढ़ा लेना, यह उस धिक्याभिसन्धिः क्षेत्रवृद्धिः, स एषोऽतिक्रमः प्रमा- दिग्वत में क्षेत्रवृद्धि नाम का अतिचार है। दान्मोहाद् व्यासङ्गाद्वा भवतीत्यवसेयः। (स. सि. क्षेत्रव्यतिरेक-अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य ७-३०) । २. अभिगमीताया दिशो लोभावेशादा- वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्र नान्यद भवति तदन्यच्च धिक्याभिसन्धिः क्षेत्रवृद्धिः । प्राग् दिशं योजनादि क्षेत्रव्यतिरेक: ।। (पंचाध्या. १-१४८) । भिः परिच्छिद्य पुनर्लोभवशात्ततोऽधिकाकांक्षणं क्षेत्र- जो एक देश-काशी कौशल प्रादि-जितने वृद्धिरित्यध्यवसीयते । (त. वा. ७, ३०, ५)। को व्याप्त करके स्थित है, वह उसका क्षेत्र है, अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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