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________________ क्षेत्रप्रतिक्रमण] ३६८, जैन-लक्षणावली [क्षेत्रमंगल निषद्यकासु प्राविधिना क्षेत्रपूजनम् ॥ (धर्मसं. प्रत्याख्यान है। श्रा. ६-६५)। क्षेत्रप्रमारण-अंगुलादियोगाहणाप्रो खेत्तपमाणं, १ तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, कैवल्यप्राप्ति और 'प्रमीयन्ते अवगाह्यन्ते अनेन शेषद्रव्याणि' इति तीर्थ के चिह्नस्वरूप निषोधिका स्थानों में जो विधि- अस्य प्रमाणत्वसिद्धेः । (जयध. १, पृ. ३६)। पूर्वक पूजा की जाती है उसे क्षेत्रपुजा कहते हैं। अंगुल प्रादि अवगाहनात्रों को क्षेत्रप्रमाण कहा क्षेत्रप्रतिक्रमण-१. उदक-कर्दम-स-स्थावरनि- जाता है। चितेषु क्षेत्रेषु गमनादिवर्जनं क्षेत्रप्रतिक्रमणम् । क्षेत्रफल-१. समवट्टवासवग्गे दहगुणिदे करणि जयो. टी. ११६); त्रस-स्थावरबहलस्य परिधो होदि । वित्थारतरिमभागे परिधिहदे स्वाध्याय-ध्यानविघ्नसंपादनपरस्य वा परिहरणं तस्स खेत्तफलं ।। (ति. प. १-११७) । २. वासो क्षेत्रप्रतिक्रमणम् ।। (भ. प्रा. विजयो. टी. ४२१)। तिगुणो परिही वासच उत्थाहदो दु खेत्तफलं । (त्रि. २. क्षेत्राश्रितातीचारान्निवर्तनं क्षेत्रप्रतिक्रमणम् । सा. १७)। (मूला. वृ. ७-११५)। १ विवक्षित क्षेत्र की परिधि को उसके बिस्तार के १ जल, कर्दम (कीचड़) तथा स-स्थावर जीवों से चतुर्थ भाग से गुणित करने पर जो प्रमाण प्राता व्याप्त क्षेत्रों में गमनागमन के परित्याग को क्षेत्र- है उसे क्षेत्रफल कहते हैं। यह गोल क्षेत्र सम्बन्धी प्रतिकमण कहते हैं । अथवा स्वाध्याय व ध्यान में क्षेत्रफल के लाने का विधान है। विघ्न उत्पन्न करने वाले प्रचुर त्रस-स्थावर जीव- क्षेत्रमंगल-१. गुणपरिणदासणं परिणिक्कमणं यक्त क्षेत्र के परिहार को प्रतिक्रमण कहते हैं। केवलस्स णाणस्स । उपत्ती इयपहुदी बहुभेयं क्षतिसेवना-१. वर्षासु कोशागमनम्, अर्धयो. खेत्तमंगलयं । एदस्स उदाहरणं पावाणगरुज्जयन्तजनं वा, ततोऽधिकक्षेत्रगमनं क्षेत्रप्रतिसेवना । अथवा चंपादी । पाहुट्टहत्थपहुदी पणवीसभहियपणसयप्रतिषिद्धक्षेत्रगमनं विरुद्धराज्यगमनं छिन्नाध्वगमनं घणि ।। देहप्रवट्टिदकेवल णाणावट्टद्धगयणदेसो वा । ततो रक्षणीयागमनम्, तस्या? यदातिक्रान्तः, सेढिघणमेत्तअप्पप्पदेसगयलोयपूरणापुण्णा ।। विस्साउन्मार्गेण वा गमनम्, अन्तःपुरप्रवेशः, अननुज्ञात- णं लोयाणं होदि पदेसा वि मंगलं खेतं । (ति. गृहभूमिगमनम्, इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवा । (भ. प. १, २१-२४)। २. तत्र क्षेत्र मङ्गलं गुणपरिप्रा. विजयो. ४५०) । २. खेत्तं वर्षासु साधूनां परिणतासन-परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति- परिनिक्रोशं द्विक्रोश वा गमनमिष्टम् । ततो ऽधिकक्षेत्र- र्वाणक्षेत्रादिः। तस्योदाहरणं ऊर्जयन्त-चम्पा-पावागमनं क्षेत्रप्रतिसेवना। अथवा निषिद्धक्षेत्र विरुद्ध- नगरादिः । अर्धाष्टारल्यादि-पञ्चविंशत्यूत्तरपंचराज्य-छिद्राद्युन्मार्गान्तःपुराननुज्ञातगृहभूमि • द्रोण्या- धनुशतप्रमाणशरीरस्थित-कैवल्याद्यवष्टब्धाकाशदेशा दिगमनं क्षेत्रप्रतिसेवना । (भ. प्रा. मूला. ४५०)। वा, लोकमात्रात्मप्रदेशैलॊकपूरणापूरितविश्वलोक१ वर्षा ऋतु में साधु के लिए प्राधा कोश अथवा प्रदेशा वा । (धव. पु. १, पृ. २८-२६) । पाधा योजन जाने का विधान है, उससे अधिक १ जिन स्थानों पर साधु जनों ने उत्तमोत्तम गणों जाना, यह क्षेत्रप्रतिसेवना है। अथवा निषिद्ध क्षेत्र की प्राप्ति के कारणभूत वीरासनादि से स्थित में, विरुद्ध राज्य में, और त्रुटित मार्ग में गमन होकर ध्यान किया है, जहाँ पर दीक्षा ग्रहण की इत्यादि क्षेत्रप्रतिसेवना है। है, केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया है, उन क्षेत्रप्रत्याख्यान-अयोग्यानि वानिष्टप्रयोजनानि स्थानों को क्षेत्रमंगल कहते हैं। जैसे-पावानगर संयमहानि संक्लेशं वा संपादयन्ति यानि क्षेत्राणि ऊर्जयन्त व चम्पापुर प्रादि। साढ़े तीन हाथ से तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यानम् । (भ. प्रा. लेकर पांच सौ पच्चीस धनुष तक के शरीर में विजयो. ११६)। स्थित और केवलज्ञान से व्याप्त प्राकाशप्रदेशों को अयोग्य व अनिष्ट प्रयोजन वाले तथा जो क्षेत्र संयम- भी क्षेत्रमंगल कहते हैं। तथा लोकपूरण समदद्यात विनाश और संक्लेश को उत्पन्न करते हैं उनका में दशा में केवली भगवान् के प्रात्मप्रदेशों से सर्वस्याग करूंगा, इस प्रकार के नियम का नाम क्षेत्र- लोक के व्याप्त होने के कारण लोक के समस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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