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________________ क्षेत्रशुद्धि ] नहीं है। उससे श्रन्य क्षेत्र क्षेत्रव्यतिरेक है । क्षेत्रशुद्धि - १. व्याख्यातृव्यवस्थित प्रदेशाच्चतसृष्वपि दिवष्टाविंशतिसहस्रायतासु विण्मूत्रास्थि-केशनख त्वगाद्यभावः षष्ठातीतवाचनात: आरात् पंचेन्द्रियशरीरार्द्रास्थि त्वग्- मांसास्रक्सम्बन्धाभावश्च क्षेत्रशुद्धि: । ( धव. भाग. ६, पृ. २५३) । २. एकान्ते निर्मले स्वास्थ्यकरे शीतादिवर्जिते । वन्दनां कुर्वतो देशे क्षेत्रशुद्धिश्च सा मता ॥ ( धर्मसं. श्री. ७-४५)। ४००, जैन - लक्षणावली १ शास्त्रव्याख्याता जिस क्षेत्र में स्थित हो उसकी चारों दिशाओं में अट्ठाईस हजार (धनुष) लम्बे क्षेत्र में मल, मूत्र, हड्डी, बाल, नाखून और चमड़े श्रादि के प्रभाव को तथा छठी प्रतीत वाचना से निकटवर्ती क्षेत्र में पंचेन्द्रिय प्राणी के शरीर की गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रक्त के प्रभाव को भी क्षेत्रशुद्धि कहते हैं। यह शुद्धि शिष्याध्यापनरूप वाचना से सम्बद्ध है । क्षेत्रसमवाय - १. जम्बूद्वीप- सर्वार्थसिद्धघप्रतिष्ठाननरक - नन्दीश्वरैकवापीनां तुल्ययोजनशतसहस्रविकम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायनात् क्षेत्रसमवायः । (त. वा. १ २०, १२; धव. पु. ६, पृ. १६९ ) । २. खेत्तदो सीमंतणिरय माणुसखेत्त उडुविमाण-सिद्धि खेत्तं च समा । ( धव. पु. १, पु. १०१ ); सिद्धिमनुष्यक्षेत्र विमान सीमन्तनरकाणां तुल्ययोजनपंचचत्वारिंशच्छतसहस्राविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायः । ( धव. पु. ६, १६९ ) । ३. सीमंत माणुसखेत्त-उडुविमाण- सिद्धिखेत्ताणि चत्तारि वि सरिसाणि एसो खेत्तसमवा । ( जयध. पु. १, पृ. १२४) । ४. क्षेत्राश्रयेण सीमान्तनरक- मनुष्यक्षेत्र ऋत्विन्द्रकाणि सदृशानि अवधिस्थाननरक- जम्बूद्वीप- सर्वार्थसिद्धिविमानानि सदृशानि इत्यादिः क्षेत्रसमवायः । (गो. जी. म. प्र. टी. ३५६ ) । ५. क्षेत्राश्रयेण सीमन्तनरक - मनुष्यक्षेत्र - ऋत्विन्द्रक - सिद्धक्षेत्राणि प्रदेशतः सदृशानि श्रवधिस्थाननरक-जम्बूद्वीपसर्वार्थसिद्धिविमानानि सदृशानि इत्यादिः क्षेत्रसमवायः । (गो. जी. जी. प्र. टो. ३५६ ) । १ जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि, श्रप्रतिष्ठाननरक प्रौर नन्दीश्वरद्वीपस्थ प्रत्येक वापी का समानरूप से एक लाख योजन प्रमाण विस्तार होने के कारण इसे क्षेत्रसमवाय कहा जाता है । Jain Education International [क्षेत्रससार क्षेत्र समाधि - क्षेत्र साधिस्तु यस्य यस्मिन् क्षेत्रे व्यवस्थितस्य समाधिरुत्पद्यते स क्षेत्रप्राधान्यात् क्षेत्रसमाधिः, यस्मिन् वा क्षत्रे समाधिर्व्यावर्ण्यते इति । (सूत्र. नि. शी. वृ. १०५, पृ. १८७) । जिस क्षेत्र में अवस्थित जिस किसी पुरुष के चित्त की एकाग्रतारूप समाधि उत्पन्न हो, उसे क्षेत्र की प्रधानता से क्षेत्रसमाधि कहते हैं । श्रथवा जिस क्षेत्र में समाधि का वर्णन किया जाता है उसे क्षेत्रसमाधि जानना चाहिए । क्षेत्रसंयोग - से कि तं खित्तसंजोगे ?, २ भारहे एरवए हेमवए हेरण्णवए हरिवासए रम्मगवास ए देवकुरुए पुण्वविदेह प्रवरविदेहए, ग्रहवा मागहे मालवए सोरट्ठए मरहट्ठए कुंकणए, से तं खेत्तसंजोगे । ( अनुयो. सू. १३०, पृ. १४४ ) । भरत व ऐरावत श्रादि क्षेत्रों में उत्पन्न हुए जीवों के उन क्षेत्रों के सम्बन्ध से जो भारत व ऐरावत आदि नाम प्रसिद्ध होते हैं उन्हें क्षेत्र के संयोग से जानना चाहिए । क्षेत्रसंसार - १. स्वशुद्धात्मद्रव्यसम्बन्धि सहजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशेभ्यो भिन्ना ये लोकक्षेत्रप्रदेशास्तत्र कैकं प्रदेशं व्याप्यानन्तवारान यत्र न जातो न मृतोऽयं जीवः स कोऽपि प्रदेशो नास्तीति क्षेत्रसंसार: । (बृ. ब्रव्यसं. टी. ३५, पृ. ८६-६० ) । २. तेषा - मेव ( जीव- पुद्गलानामेव ) क्षेत्रे चतुर्दशरज्वात्मके यत्संसरणं स क्षेत्रसंसार: । यत्र वा क्षेत्रे संसारो व्याख्यायते तदेव क्षेत्रमभेदोपचारात् संसारो यथा रसवती गुणनिकेत्यादि । ( स्थाना. श्रभय वृ. ४, १, २६१) । ३. चतुरशीतिलक्षसीमन्तका दिनरकादिध्वतीते कालेऽनन्ता जन्म-मरणयोर्वृत्तिर्भविष्यति सान्ता भव्यानामनन्ता चाभव्यानां क्षेत्रसंसारः । (भ. प्रा. मूला. ४३० ) । १ सहज शुद्ध लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण जो शुद्ध श्रात्मा के प्रवेश हैं उनसे भिन्न लोकक्षेत्र के प्रवेशों में ऐसा कोई प्रदेश नहीं हैं, जिसे व्याप्त करके यह जीव अनन्त बार जन्म-मरण को न प्राप्त हुआ हो, यही क्षेत्रसंसार है । २ चौदह राजस्व - रूप क्षेत्र में जो जीव और पुद्गलों का परिभ्रमण होता है, इसका नाम क्षेत्रसंसार है । अथवा जिस क्षेत्र में संसार का व्याखन किया जाता है, उसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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